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________________ जैनविद्या 18 21 सरस्वती उनके कंठों पर विराजमान थीं। समन्तभद्र आचार्य कब और किन परिस्थितियों में बने, किसके द्वारा उनको आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया गया- इस संदर्भ में कोई उल्लेख नहीं मिलता। परन्तु उक्त छंद में आचार्योऽहं' यह प्रथम विशेषण उनके आचार्य होने का समर्थन करता है। इसी छंद में ही आज्ञासिद्ध विशेषण शब्द संसार पर उनके पूर्ण आधिपत्य का सूचक है और सिद्ध सारस्वत का विशेषण उनकी अप्रतिहतवाद शक्ति का परिचायक है। आचार्य समन्तभद्र वादकुशल ही नहीं वादरसिक आचार्य भी थे जैन धर्म के यथार्थ स्वरूप को प्रकट करते और दर्शनान्तरीय विद्वानों से जमकर लोहा लेते। अपने समय के प्रसिद्ध ज्ञानकेन्द्रों में, जनपदों में एवं सुदूर प्रदेशों में पहुँचकर उन्होंने शास्त्रार्थ किए। दक्षिण के दिग-दिगन्त उनके शास्त्रार्थ विजय-उद्घोषों से ध्वनित थे। आचार्य समन्तभद्र एक बार उद्भट विद्वानों के प्रमुख केन्द्र करहाटक में पहुँचकर राजसभा में खड़े होकर बोले - पूर्व पाटलिपुत्र मध्य नगरे भेरी मयाताडिता, पश्चान्मालव-सिन्धु-ठक्क-विषये-काँचीपुरे-वैदिशे। प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभटं विद्योत्कटं संकटं, वादार्थी विचराम्यहं नरपतेः शार्दूल विक्रीडितं । (श्रवणवेलगोल शिलालेख सं. 54) अर्थात् हे राजन् ! सर्वप्रथम मैंने पाटलिपुत्र में भेरी-वादन-पूर्वक शास्त्रार्थ किया। तत्पश्चात् मालव, सिन्धु, ढक्क प्रदेश, काञ्चीपुर (काञ्जीवरम) और वैदिश में इसी प्रकार शास्त्रार्थ करता हुआ मैं विद्याकेन्द्र करहाटक में पहुँचा हूँ। शास्त्रार्थ हेतु मैं शार्दूल की तरह परिभ्रमण कर रहा हूँ। इस प्रकार प्रस्तुत उल्लेख में समागत देशों के नामों से स्पष्ट है कि आचार्य समन्तभद्र के 'वादक्षेत्र' दक्षिण के अतिरिक्त भारत के अन्य प्रदेश भी थे। आचार्य समन्तभद्र की कवित्व शक्ति निरुपमेय थी। उनके स्तोत्रकाव्यों में शब्द और अर्थ दोनों की गम्भीरता परिलक्षित होती है। काव्यचमत्कार की दृष्टि से उनकी पद्यावलियाँ उत्तरवर्ती रचनाकारों के लिए मार्गदर्शक बनी हैं। प्रबन्धकाव्य न होते हुए भी अनेक काव्य-श्लोकों में अनेक स्थलों पर प्रौढ़ प्रबन्धात्मकता के अभिदर्शन होते हैं। उनके 'स्तुतिविद्या' के कई पद्यों को अनुलोमप्रतिलोम किसी क्रमसे पढ़ा जा सकता है और दोनों ही प्रकार के क्रम में शब्द चमत्कार और अर्थ चमत्कार पाठक को मनोमुग्ध कर देता है। आचार्य समन्तभद्र की वादकुशलता और कवित्वशक्ति की उत्तरवर्ती आचार्यों ने मुक्तकंठ से प्रशंसा की है यथा समन्तभद्रस्य चिराय जीयाद्वादीभवज्रांकुश सूक्तिजाल: यस्य प्रभावात्मकलावनीयं वन्ध्यास दुर्वादुक वार्तयापि । (श्रवणवेलगोला, शिलालेख नं. 105) वादिराजसूरि ने यशोधरचरित' में आचार्य समन्तभद्र को काव्यमणियों का पर्वत', वर्धमानसूरि ने 'वराङ्गचरित' में 'महाकवीश्वर' तथा 'सुतर्क शास्त्रामृत सागर' एवं प्रशस्त टीकाकार आचार्य हरिभद्र ने
SR No.524765
Book TitleJain Vidya 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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