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________________ जैनविद्या 18 में प्रवेश पाकर आचार्य समन्तभद्र गणियों के गणी कहलाये। स्वामी शब्द से पहचाने गए और श्रमण संघ के महान गौरवार्ह आचार्य सिद्ध हुए। आचार्य समन्तभद्र अद्भुत प्रतिभा के धनी थे। ज्ञान के भण्डार थे। आचार्य श्री समन्तभद्र संस्कृत, प्राकृत, कानड़ी तथा तमिल आदि भाषाओं के प्रखर विद्वान थे। संस्कृत भाषा पर उनका विशेष अधिकार था। सरस्वती की अपार कृपा उन पर बरस रही थी - “सरस्वतीस्वैरविहाभूमयः समन्तभद्र प्रमुखा मुनीश्वराः" (गद्यचिन्तामणि)। दर्शनशास्त्र, न्यायशास्त्र, व्याकरण, ज्योतिष, काव्य, पुराण, इतिहास आदि तत्कालीन भारतीय विद्याओं के विविध विषय उनके आत्मगत हो गए थे। आचार्य समन्तभद्र स्याद्वाद के संजीवक आचार्य थे। उनके उत्तरवर्ती विद्वान् आचार्यों ने आचार्यश्री को स्यावाद विद्यापति, स्याद्वाद शरीर"श्रीमत्समंतभद्राचार्यस्य त्रिभुवन लब्ध जयपताकस्य प्रमाणलयचक्षुषः स्याद्वाद शरीरस्य देवागमाख्याकृतेः संक्षेपभूतं विवरणं कृतं श्रुत विस्मरणखीलेन वसुनंदिना जडमतिनाऽत्योपकाराय" (वसुनंद्याचार्य कृत देवागम वृत्ति), स्याद्वाद विद्यागुरु तथा स्याद्वाद अग्रणी- “स श्री स्वामि समन्तभद्र यतिभृद्भूया विभुर्भानुमान्, विद्यानन्दघन प्रदोऽनघधियां स्याद्वादमागग्रणीः” (अष्टसहस्री प्रशस्तिपद्य) का सम्बोधन देकर अपना मस्तक झुकाया। भट्ट अकलंक ने समन्तभद्र को भव्य जीवों के लिए अद्वितीय नेत्र कहा है एवं स्याद्वादमार्ग का विशेषण दिया है- “भव्यैकलोकनयनं परिपालयन्तं स्याद्वादवर्त्म परिणौमि समन्तभद्रम" (अष्टशती)। आदिपुराण के कर्ता जिनसेन के शब्दों में कवीनां गमकानाञ्च वादिनां वाग्मिनामपि । यशः सामन्तभद्रीयं मूनि चूड़ामणीयते ॥43॥ नमः समन्तभद्राय महते कविवेधसे । यद्वचोवज्रपातेन निर्भिन्नाः कुमताद्रयः ।।44॥ अर्थात् कवित्व, गमकत्व, वादित्व, वाग्मित्व ये चार गुण उनके व्यक्तित्व के अंलकारभूत थे। अपने इन विरल गुणों के कारण वे काव्य लोक के उच्चतम अधिकारी, आगम मर्मज्ञ, सतत शास्त्रार्थ प्रवृत्त और वाग्पटु थे। अधिक क्या ? आचार्य समन्तभद्र कवियों के लिए विधाता थे। उनके वचन-वज्रपात से मिथ्यात्व के भीमकाय शैल चूर-चूर हो जाते थे। आचार्य समन्तभद्र मुनिचर्या के नियमों में सतत जागरूक थे। कठोर तपश्चर्या के पालक थे एवं महान कष्टसहिष्णु भी थे। स्वयंभूस्तोत्र में आचार्य समन्तभद्र स्वयं कहते हैं आचार्योहं कविरहमहं वादिराट् पण्डितोऽहं, दैवजोऽहं भिषगहमहं मान्त्रिकस्तान्त्रिकोऽहं । राजन्नस्यां जलधि वलया मेखलायामिलाया माज्ञासिद्धः किमति बहुना सिद्ध सारस्वतोऽहं ॥3॥ अर्थात् स्वामी समन्तभद्र आचार्य, कवि, वादिराट, पण्डित, दैवज्ञ (ज्योतिषज्ञ), वैद्य, मान्त्रिक, तांत्रिक, आज्ञासिद्ध और सिद्ध सारस्वत थे। आसमुद्रात पृथ्वी पर उनका आदेश अनतिक्रमणीय था और
SR No.524765
Book TitleJain Vidya 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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