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जैनविद्या 18
अप्रेल-1996
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सारस्वताचार्य समन्तभद्र : व्यक्तित्व और कर्तृत्व
- डॉ. आदित्य प्रचण्डिया
सारस्वताचार्य समन्तभद्र असाधारण व्यक्तित्व के स्वामी तथा श्रुतधर आचार्य थे। जैनेन्द्र व्याकरण में समागत चतुष्टयं समन्तभद्रस्यं' (सूत्र-5.4.168) के उल्लेख से आचार्य समन्तभद्र आचार्य पूज्यपाद (देवनन्दी) से पूर्ववर्ती प्रमाणित होते हैं। पंडित सुखलाल जी ने समन्तभद्र पर बौद्ध विद्वान धर्मकीर्ति का प्रभाव मानकर उनको धर्मकीर्ति से उत्तरवर्ती माना है। आचार्य समन्तभद्र के ग्रन्थों में कुमारिल भट्ट की शैली का अनुकरण है। कुमारिल भट्ट ई. सन् 625 से 680 के विद्वान माने गए हैं। इस आधार पर आचार्य समन्तभद्र का समय वीर निर्वाण की 12वीं सदी अर्थात् विक्रम की 7वीं सदी अनुमानित होता है। स्वर्गीय पंडित जुगलकिशोर मुख्तार आदि विद्वान आचार्य समन्तभद्र का समय विक्रम की द्वितीय शताब्दी एवं अनेक इतिहासकार उनका सत्ता-समय वि. की 5वीं शताब्दी मानने के पक्ष में हैं। आचार्य समन्तभद्र ने अपने को कांची का नग्नाटक कहा है - ‘काञ्च्यां नाग्नाटकोऽहं' (आराधनासार, नेमिचन्द्रवर्णी)। काञ्ची मैसूर प्रान्त में है और वर्तमान में वह काञ्जीवरं नाम से प्रसिद्ध है। इससे स्पष्ट है कि आचार्य समन्तभद्र ने दिगम्बर दीक्षा ग्रहण की थी और मुनिजीवन में काञ्जी से उनका सम्बन्ध किसी न किसी रूप में अवश्य था। आचार्य समन्तभद्र दक्षिण के क्षत्रिय राजकुमार थे। वे फणिमण्डलान्तर्गत (तमिलनाडु) उरगपुर नरेश के पुत्र थे- 'इति फणिमण्डलालंकारस्योरगपुराधिपसूनोः श्री स्वामि समन्तभद्र मुनेः कृतौ आप्तमीमांसायाम्' (आप्तमीमांसा) । उरगपुर चौल राजाओं की सबसे प्राचीन ऐतिहासिक राजधानी थी। आचार्य समन्तभद्र के स्तुतिविद्या' के 116 वें पद्य की चित्र-रचना के सातवें वलय में 'शान्तिवर्म' नाम का बोध होता है। इससे यह प्रतिभाषित है कि शान्तिवर्म स्वयं समन्तभद्र का मुनिजीवन से पूर्व का नाम रहा होगा। मुनिजीवन