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जैनविद्या 18
प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव की स्तुति -
. श्री मज्जिनपदाभ्याशं प्रतिपद्यागसां जये ।
कामस्थानप्रदानेशं स्तुतिविद्यां प्रसाधये ॥ - कामस्थान (इष्ट स्थान, मोक्ष) को, इन्द्रिय सुख के स्थान स्वर्गादि को, इन्द्रिय-विषयों की रोकथाम को अथवा सांसारिक और पारमार्थिक-रूप दोनों सुखों को प्रदान करने में समर्थ केवलज्ञानादि लक्ष्मी से सम्पन्न भगवान ऋषभदेव के पद-सामीप्य को प्राप्त करके पापों को जीतने के लिए (समन्तभद्र) इस स्तुतिविद्या की प्रसाधना करता हूँ, अर्थात् उसे सब प्रकार से सिद्ध करने के लिए उद्यत हुआ हूँ।
यह पद्य मुरजबन्ध है।
मुरजबन्ध में श्लोक के पहले पूर्वार्द्ध को पंक्ति के आकार में लिखकर उत्तरार्द्ध को भी पंक्ति के आकार में उसके नीचे लिखा जाता है। इस अलंकार में प्रथम पंक्ति के प्रथम अक्षर को द्वितीय पंक्ति के द्वितीय अक्षर के साथ और द्वितीय पंक्ति के प्रथम अक्षर को प्रथम पंक्ति के द्वितीय अक्षर के साथ मिलाकर पढ़ना चाहिये- यही क्रम श्लोक के अन्तिम अक्षर तक जारी रखना चाहिये। यह सामान्य मुरजबन्ध' के लक्षण हैं । इस ग्रंथ के 2, 6, 7, 8, 9, 29,30-35, 38-42, 45, 49,58-63, 65,67-71, 73-80, 82, 99, 101-105 संख्या के श्लोक मुरजबन्ध अलंकार से वेष्टित हैं।'
विश्वमेको रुचामाऽको व्यापो येनार्य वर्तते। .
शश्वल्लोकोऽपिचाऽलोको द्वीपो ज्ञानार्णवस्यते॥8॥ हे आर्य ! यह समस्त लोक और अलोक आपके केवलज्ञान का ही ज्ञेय है। आपका केवलज्ञान लोकवर्ती समस्त पदार्थों और अलोकाकाश को जानता है। अतः यह लोक और अलोक आपके ज्ञानसमुद्र के द्वीप हैं।
इस श्लोक में आचार्य समन्तभद्र ने भगवान के ज्ञान को महासमुद्र और विश्व को समुद्र में होनेवाला द्वीप बताया है। यमक-अलंकार का उदाहरण -
गायतो महिमायते गा यतो महिमाय ते ।
पद्मया स हि तायते पद्मयासाहितायते ॥15॥ - हे भगवान! आप स्वयं माहात्म्य को प्राप्त हैं। आपका शरीर भी लक्ष्मी से अनुपम है। विहार के समय देवलोग आपके चरणों के नीचे कमलों की रचना करते हैं। आपकी आज्ञा भव्य जीवों का हित करनेवाली है। हे प्रभो, जो आपका गुणानुवाद करता है उसकी वाणी महत्व को प्राप्त हो जाती है। अर्थात् उसकी वाणी अनेक अतिशयों को धारण करती है। अतः मैं भी आपके चरणकमलों को गुणों से विस्तारता हूँ, स्तुति करता हूँ।
अजितनाथ भगवान की स्तुति (यमकालंकार)