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________________ जैनविद्या 18 स्तुतिविद्या/जिनशतक स्तुतिविद्या आचार्य समन्तभद्र की एक अनुपम कृति है जिसमें चतुर्विंशति तीर्थंकरों की स्तुति की गई है। जिस प्रकार स्वयंभूस्तोत्र में चतुर्विंशति तीर्थंकरों की स्तुति 143 श्लोकों में की गई उसी प्रकार इसमें 116 श्लोकों में की गई है। यह स्तुतिविद्या नाम भी प्रथम श्लोक में कर्ता द्वारा की गई की प्रतिज्ञा 'स्तुतिविद्या प्रसाधये' द्वारा जाना जाता है। ___ यह स्तुतिविद्या अंलकृत भाषा में बड़ी ही कलात्मक ढंग से रची गई है। कहीं पर श्लोक के एक चरण को उलटकर रख देने से दूसरा चरण, पूर्वार्द्ध को उलटकर रख देने से उत्तरार्द्ध तथा समूचे श्लोक को उलटकर रख देने से दूसरा श्लोक बन जाता है। कहीं-कहीं चरण के पूर्वार्द्ध-उत्तरार्द्ध में भी ऐसा ही क्रम रखा गया है और कहीं-कहीं एक चरण में क्रमशः जो अक्षर हैं वे ही दूसरे चरण में हैं, पूर्वार्द्ध में जो अक्षर हैं वे ही उत्तरार्द्ध में हैं और पूर्ववर्ती श्लोक में जो अक्षर हैं वे ही उत्तरवर्ती श्लोक में हैं परन्तु अर्थ एक-दूसरे से प्रायः भिन्न-भिन्न है। अक्षरों को सटाकर तथा अलग से रखकर भिन्न-भिन्न शब्दों तथा पदों की संरचना कर संगठित किया गया है। श्लोक संख्या 102 का उत्तरार्ध है - श्रीमते वर्द्धमानाय नमो नमितविद्विषे अगले दो श्लोकों का उत्तरार्द्ध भी इसी अक्षर-क्रम को लिये हुए है, परन्तु वहाँ अक्षरों के विन्यासभेद और पदादिक की अलग-अलग संरचनाओं से अर्थ प्रायः बदल जाता है। कितने ही श्लोक ग्रंथ में प्रायः ऐसे हैं जिनमें पूर्वार्द्ध के विषम-संख्याक अक्षरों को उत्तरार्द्ध के समसंख्यांक अक्षरों के साथ क्रमशः मिलाकर पढ़ने से पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध के विषम-संख्यांक अक्षरों को पूर्वार्द्ध से सम संख्यांक अक्षरों के साथ क्रमशः मिलाकर पढ़ने से उत्तरार्द्ध हो जाता है। ये श्लोक 'मुरज' अथवा 'मुरजबन्ध' कहलाते हैं क्योंकि इनमें मृदंग के बन्धनों जैसे चित्राकृति को लिये हुए अक्षरों का बन्धन रखा गया है। ये चित्रालंकार थोड़े-थोड़े से अन्तर के कारण अनेक भेदों को लिये हुए है। कुछ पद्य चक्राकृति के रूप में अक्षर-विन्यास को लिये हुए हैं और इससे उनके कोई-कोई अक्षर चक्र में एक बार लिखे जाकर भी अनेक बार पढ़ने में आता है। इस प्रकार यह ग्रंथ शब्दालंकार, अर्थालंकार और चित्रालंकार के अनेक भेद-प्रभेदों से अलंकृत है और इसीसे दूसरी टीका करनेवाले महोदय (वसुनन्दि आचार्य) ने टीका के आरम्भ में ही इस कृति को 'समस्त गुणगणोपेता' विशेषण के साथ सर्वालंकारभूषिता' लिखा है। वास्तव में यह ग्रंथ अपूर्व काव्यकौशल, अद्भुत व्याकरण-पाण्डित्य और अद्वितीय शब्दाधिपत्य को सूचित करता है। इसकी दुर्बोधता का उल्लेख इसकी संस्कृत टीकाकार ने योगिनामपि दुष्करा' अर्थात् योगियों के लिए भी दुर्गम कहा है। किन्तु इसी के साथ इसको 'सद्गुणाधार' बताते हुए ‘सुपद्मिनी' भी कहा है। इसका अर्थ यह है कि यह रचना कोमल अंगोंवाली, सुरभिता और सुन्दरता को सूचित करनेवाली है। ग्रंथकार आचार्य समन्तभद्र ने इस रचना का उद्देश्य ग्रंथ के प्रथम पद्य में आगसांजये' अर्थात् पापों को जीतना बताया है। ग्रंथ के सभी पद्यों में प्रायः इसी भाव को दर्शाया है। ग्रंथ को रुचिपूर्वक पढ़ने से उसके असली रहस्य का पता चलता है । यहां कतिपय पद्यों को उद्धृतकर उदाहरणार्थ प्रस्तुत किया गया है -
SR No.524765
Book TitleJain Vidya 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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