________________
जैनविद्या 18
अनुष्टुप छंद में भगवान अरहनाथ के अनेकान्तवाद को सत्य एवं प्रमाणिक बताते हुए आचार्य कहते हैं कि हे भगवान, आपके अनेकान्तवाद के विपरीत एकान्तवाद का कथन सर्वथा मिथ्या है जो अपने ही सिद्धान्त का घातक है अतः अयुक्त है।
सर्वथा नियमत्यागी यथादृष्टमपेक्षकः ।
स्याच्छब्दस्तावके न्याये नान्येषामात्म विद्विषाम्॥1020 आचार्य भगवान द्वारा कथित स्यात् शब्द का प्रयोग न्यायसम्मत सिद्धान्त बताते हैं। वे कहते हैं कि हे जिनेश्वर ! सर्वथा एकान्तवाद नियम का त्यागी है। किन्तु आपका अनेकान्त 'स्याद्' शब्द से वांछित होने से न्यायसंगत है। स्यात् शब्द न होने से अन्य मत स्वघातक एवं मिथ्या हैं।
अनेकान्तोप्यनेकान्तः प्रमाणनयसाधनः ।
अनेकान्तः प्रमाणात्ते तदेकान्तोऽर्पितानयात् ॥103॥ प्रमाण और नय से सिद्ध होने पर अनेकान्त भी अनेकान्त स्वरूप है। अर्थात् किसी अपेक्षा से अनेकान्त है और किसी अपेक्षा से एकान्त है। हे अरहनाथ जिन, आपके मत में प्रमाण की अपेक्षा से जो सर्व धर्मों को एकसाथ जाननेवाला है वह अनेकान्त अनेक धर्म-स्वरूप है और किसी विशेष नय की अपेक्षा से वह अनेकान्त एकान्त-स्वरूप है। अर्थात् एक स्वभाव को बतानेवाला है।
अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं, नसातत्रारम्भोऽस्त्यणुरपिच यत्राश्रमविधौ। ततस्तत्सिद्धयर्थं परमकरुणो ग्रंथमुभयम् ।
भवानेवात्याक्षीन्न च विकृतवेषोपधिरतः ॥11॥ उक्त शिखरिणी छंद में स्वामी जी ने अहिंसा को परमब्रह्म परमात्म-स्वरूप बतलाते हुए कहा है कि जिस आश्रम के नियमों में किंचित् मात्र भी आरम्भ का व्यापार है वहाँ पूर्ण अहिंसा नहीं हो सकती। इसलिए 'उस पूर्ण अहिंसा के वास्ते परम दयावान, आपने (नमि जिन ने)अन्तरंग एवं बहिरंग दोनों प्रकार के परिग्रह को त्याग दिया तथा विकारी वेशों से छुटकारा पाकर दिगम्बर वेश धारण कर लिया।
अनवद्यः स्याद्वादस्तव दृष्टेष्टाविरोधतः स्याद्वादः ।
इतरोन स्याद्वादो सद्वितयविरोधान्मुनीश्वरा स्याद्वादः॥138॥ आर्या छंद में गुम्फित भगवान महावीर की स्तुति करते हुए आचार्य श्री समन्तभद्र कहते हैं कि भगवान ! आपका स्याद्वादमय अनेकान्त शासन अनवद्य (निर्दोष) है । वह प्रत्यक्षादि प्रमाणों से तथा आगम से अवरुद्ध है क्योंकि वह कथंचित् या अपेक्षावाला होने से यथार्थ है। इसके अतिरिक्त एकान्त मत जो कि अपेक्षा से रहित है दूषित है। वह एकान्तमत प्रत्यक्ष और आगम प्रमाण से विरुद्ध होने से सच्चा नहीं है। स्याद्वाद ही भिन्न-भिन्न स्वभावों में सिद्ध करनेवाला है।
इस प्रकार स्वयंभूस्तोत्र में स्वामी समन्तभद्र ने चतुर्विंशति तीर्थंकरों की स्तुति करके स्याद्वाद सिद्धान्त को सिद्ध किया है।