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________________ जैनविद्या 18 स्वयम्भुवा भूतहितेन भूतले समंजसज्ञानविभूतिचक्षुषा । विराजितं येन विधुन्वता तमः क्षपाकरेणेव गुणोत्करैः करैः ॥1॥ उपजाति छंद से अलंकृत प्रस्तुत पद्य भगवान आदिनाथ की स्तुति-सम्मत है। इसमें कहा गया है कि हे आदिनाथ भगवन्, आप इस पृथ्वीतल पर अपने अभ्युदय के स्वयं निर्माता हैं। अतः आप वास्तव में स्वयंभू हैं। आपने प्राणीमात्र का कल्याण किया है । जिस प्रकार चन्द्रमा अपनी किरणों से रात्रिजन्य अन्धकार दूर करता है उसी प्रकार आपने अपने आध्यात्मिक वैभव द्वारा अर्थात् केवलज्ञान-रूप प्रकाश से भव्यात्माओं का अन्तरंग और बहिरंग अज्ञानान्धकार दूर किया है। त्वं शम्भव: संभवतर्षरोगैः संतप्यमानस्य जनस्य लोके। आसीरिहाकस्मिक एव वैद्यो वैद्यो यथानाथरुजां प्रशान्त्यै॥11॥ प्रस्तुत पद्य इन्द्रवज्रा छंद से सुशोभित है। इसमें कवि ने भगवान को तृष्णा शान्त करनेवाले वैद्य की उपमा देते हुए कहा कि हे संभवनाथ भगवान, जिस प्रकार चतुर वैद्य शारीरिक रोगों को शमन करता है उसी प्रकार आप सांसारिक तृष्णाजन्य रोग से ग्रस्त मानव के रोगों को शान्त करने में आकस्मिक अर्थात् अचानक आये हुए सफल वैद्य हैं। अचेतने तत्कृतबन्धजेऽपि च ममेदमित्याभिनिवेशिकग्रहात्। प्रभंगुरे स्थावरनिश्चयेन च क्षतं जगत्तत्त्वमजिग्रहाद्भवान् ॥17॥ प्रस्तुत पद्य उपेन्द्रवज्रा छंद से अलंकृत है। इसमें स्वामी जी ने बताया है कि समस्त जगत इस जड़ शरीर में तथा तत्सम्बन्धित कर्म-बन्ध द्वारा प्राप्त धनादि या कुटुम्ब आदि में ममकार किये हुए है। अर्थात् वह यह धारणा किये बैठा है कि यह मेरा है, वह मेरा है, इत्यादि क्षणिक संयोगों को स्थिर माने हुए है तथा इसी मिथ्याधारणा से कष्ट पा रहा है। ऐसे प्राणियों को शरीर और आत्मा का यथार्थ ज्ञान करा के आपने तत्व का असली रूप-स्वरूप बतलाया है। अनेकमेकं च तदेव तत्त्वं भेदान्वयज्ञानमिदं हि सत्यम्। मृषोपचारोऽन्यतरस्य लोपेतच्छेषलोपोऽपिततोऽनुपाख्यम्॥22॥ उपेन्द्रवज्रा छन्द से समन्वित उक्त पद्य में भगवान सुमतिनाथ को युक्तियुक्त मत के प्रवक्ता बताया है। स्वामी जी कहते हैं कि हे भगवान! आपका स्याद्वाद व अनेकान्त मत भेद (विशेष)-दृष्टि से पदार्थ को अनेकरूप तथा सामान्य अभेददृष्टि से एकरूप बतानेवाला है। यदि इन दोनों सामान्य- विशेष भेद को न मानकर मात्र एक ही धर्म को माना जायेगा तो वस्तु का वस्तुत्व धर्म ही नष्ट हो जायेगा। यदि एक का झूठा उपचार किया जाय तो दूसरा लुप्त हो जायेगा। इस प्रकार स्वभाव से च्युत होने पर शून्यता का प्रसंग आ जायेगा। अलंघ्यशक्तिर्भवितव्यतेयं हेतुद्वयाविष्कृतकार्यलिंगा। अनीश्वरो जन्तुरहंक्रियातः संहत्य कार्येष्विति साध्ववादीः ॥33॥
SR No.524765
Book TitleJain Vidya 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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