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________________ जैनविद्या 18 नहीं मानते। इनमें जीव-सिद्धि एवं गन्धहस्तिमहाभाष्य-दोनों अप्राप्य हैं। विशेष प्रसिद्ध ग्रंथ हैं- (1) वृहत् स्वयंभूस्तोत्र, (2) स्तुतिविद्या या जिनशतकम्, (3) युक्त्यनुशासन, (4) देवागम स्तोत्र (अप्तमीमांसा) और (5) रत्नकरण्ड श्रावकाचार। यद्यपि सारे ही ग्रंथ उच्च कोटि के एवं तर्कसम्मत हैं किन्तु यहाँ उक्त पाँच पर ही संक्षिप्त विचार व्यक्त किया गया है। स्वामीजी आद्य स्तुतिकार थे। स्वयंभूस्तोत्र में चतुर्विंशति तीर्थंकरों की स-तर्क स्तुति प्रस्तुत की गई है। स्तुतिकर्ता ने भगवन्तों के गुणों की प्रशंसा तो की ही है किन्तु यह भी दर्शाया है कि आप स्तुत्य क्यों हैं ? और मैं स्तुतिकर्ता क्यों हूँ इस पर भी प्रकाश डाला गया है। स्तुतिविद्या का नामकरण ही स्तुति-सम्मत है। इसमें भी चतुर्विंशति जिनेन्द्रों की स्तुति की गई है। आप्तमीमांसा या (देवागमस्तोत्र) में आप्त की युक्तियुक्त मीमांसा की गई है। जब भगवान महावीर को तर्क-वितर्कों से आप्त मान लिया तो फिर युक्तिपूर्वक अनुशासित ढंग से उनकी स्तुति युक्त्यनुशासन में की गई । रत्नकरण्ड श्रावकाचार सब श्रावकाचारों में प्रथम श्रावकाचार है; स्वामीजी ने इसको रत्नों का करण्ड (टोकरा) बताया है। इसके सारे विषय अव्रती एवं व्रती श्रावक से सम्बन्धित हैं। सर्वप्रथम स्वयंभूस्तोत्र पर विचार किया जाता हैस्वयंभूस्तोत्र स्वयंभूस्तोत्र आचार्य श्री समन्तभद्र की प्रौढ रचना है। आपने अपने समस्त स्तुति-ग्रंथों में प्रगाढ़ तत्व-निरूपण किया है। नाम केवल स्तुति है किन्तु जैन आगम का रहस्य कूट-कूट कर भरा है। कहीं-कहीं यह वृहत् स्वयंभूस्तोत्र के नाम से प्रसिद्ध है, इससे स्वयंभूस्तोत्र वृहत् और लघु- ऐसे दो प्रकार का नहीं समझना चाहिए। जिस ग्रंथ में टीकासहित अर्थवभावार्थ दिया है वह वृहत् और जिसमें मात्र श्लोक ही दिये गये हैं वह लघु समझना चाहिये। ये पृथक-पृथक नहीं हैं। स्वयंभूस्तोत्र में चतुर्विंशति जिनेन्द्रों की स्तुति की गई है। भगवान आदिनाथ की स्तुति करते हुए स्वामीजी ने 'स्वयंभुवाभूतहितेन भूतले' शब्द से प्रारम्भ किया। इस कारण इस स्तुति का नामकरण स्वयंभूस्तोत्र कर दिया गया। जैसे कि तत्वार्थसूत्र के मंगलाचरण में 'मोक्षमार्गस्य नेतारं' वाक्य प्रथम आने से मोक्ष शास्त्र' नाम रख दिया गया। आदिनाथ स्तोत्र में प्रथम वाक्य भक्तामरप्रणत मौलि' आने से भक्तामर स्तोत्र' नाम रख दिया गया, ‘दृष्टं जिनेन्द्र भवन' प्रथम शब्द के होने से दृष्टाष्ट स्तोत्र' नाम रख दिया, अद्य में सफल जन्म' इत्यादि प्रथम शब्द आने से अद्यास्तोत्र' नाम रख दिया गया। कल्याणमन्दिर मुदारमवद्य भेदि' वाक्य प्रथम आने से स्तोत्र का नाम कल्याण मन्दिर' रख दिया गया। इसी प्रकार स्वयंभूस्तोत्र में भी समझना चाहिये। स्तुतिकार ने चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति में प्रथम तीर्थंकर की स्तुति सत्रह श्लोकों में तथा दूसरे तीर्थंकर से सत्रहवें तीर्थंकर की स्तुति पांच-पांच श्लोकों में की है, अठारहवें तीर्थंकर अरहनाथ की स्तुति बीस पद्यों में पूर्ण की, पुनः मल्लिनाथ से नमिनाथ तक तीन तीर्थंकरों की स्तुति पांच-पांच श्लोकों में की, नेमिनाथ भगवान की स्तुति दश पद्यों में की, पश्चात् पार्श्वनाथ की स्तुति पांच पद्यों में और भगवान महावीर की स्तुति आठ पद्यों में कर ग्रंथ को कुल एक सौ तियालीस पद्यों में समाप्त किया। प्रस्तुत ग्रंथअनेक छंदों में ग्रथित कवियों, वाग्मियों, मनीषियों तथा भक्तजनों का कण्ठाभरण एवं आनन्दानुभूति का प्रगाढ़ सोपान है। इसका प्रत्येक छन्द भक्ति रस के साथ शान्त रस का रसपान करानेवाला है। यहां उदाहरण के लिए कतिपय छन्द द्रष्टव्य एवं ध्यातव्य हैं -
SR No.524765
Book TitleJain Vidya 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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