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________________ जैनविद्या 18 राजन्नस्यांजलधि वलया मेखलायामिलायाम्। आज्ञासिद्धः किमिति बहुना सिद्धसारस्वतोहम्॥' - हे राजन् । मैं आचार्य (पांच प्रकार के आचार का पालन करनेवाला) हूँ, महान कविता करनेवाला कवि हूँ। वादिराट् (शास्त्रार्थ करनेवाला) हूँ, मैं पण्डित हूँ (प्रज्ञातिशयवान्), ज्योतिष-विद्या पारंगत हूँ। मैं निमित्त शास्त्र, मंत्रशास्त्र, तंत्रशास्त्र का विद्वान हूँ। अधिक क्या कहूं- इस समुद्र मेखलावाले पृथ्वीमंडल में आज्ञासिद्ध (आज्ञा से कार्य करानेवाला) और सिद्धसारस्वत (सरस्वती को सिद्ध किये हुए) हूँ। उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि आचार्य समन्तभद्र ने सारे भारत में भ्रमण किया और जहाँ गये वहाँ विजयश्री को वरण किया, आपका किसी ने विरोध नहीं किया। आचार्य श्री के विषय में प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता विद्वान श्री एम.एस. रामास्वामी आयंगर के उद्गार हैं- “ही मैट विद नो अपोजीशन फ्रॉम अदर सेक्टर वेअर वर ही वेन्ट'। समय-निर्धारण सामान्यतः सर्वसम्मतरूप से इनको विक्रम की दूसरी शताब्दी का माना जाता है परन्तु कुछ लोग इसमें सन्देह कर रहे हैं और फिर भी अनेक तर्क प्रस्तुत किये जा रहे हैं, यथा- बौद्ध तार्किक पं. धर्मकीर्ति के समकालीन बतानेवाले डा. सतीशचन्द्र विद्याभूषण इनको ई. 600 में स्थापित करते हैं । रत्नकरण्ड श्रावकाचार के श्लोक सं. 9 को सिद्धसेन दिवाकरकृत न्यायावतार से आगत बताकर श्वेताम्बर विद्वान पं. सुखलाल जी प्रज्ञाचक्षु इनको छठी शताब्दी का मानते हैं। श्री नाथूलाल प्रेमी तथा डा. हीरालाल जैन इन्हें ई. 510 का स्वीकारते हैं। परन्तु नागवंशी चोल नरेश कौलिक वर्मन के ऐतिहासिक साक्ष्य के अनुसार डा. ज्योतिप्रसाद इनको ई. 120-185 में मानते हैं। श्री जुगलकिशोर मुख्तार तथा डा. महेन्द्रकुमार जैन ई. 210 में प्रतिष्ठित मानते हैं। किन्तु ऐसा स्वीकारने पर श्रवणबेलगोल के शिलालेख सं. 40 में गृद्धपिच्छ (उमास्वामी) के प्रशिष्य कहा गया है यह घटित नहीं होता । इस प्रकार कोई इनको वि.सं. 57, वि. सं. 125, कुछ वि.सं. 138 तथा कोई विक्रम की दूसरी शताब्दी के अन्तिम चरण में मानते हैं किन्तु जब इनको उमास्वामी के प्रशिष्य मानते हैं तो इनका उमास्वामी से पीछे के तथा पूज्यपाद आचार्य के पूर्व के मानते हैं क्योंकि पूज्यपाद ने अपनी जैनेन्द्र व्याकरण में चतुष्टयं समन्तभद्रस्य' शब्द का उच्चारण किया इस उक्त ऊहापोह से यही सिद्ध होता है कि अभी इनका यथार्थ काल शोध का विषय ही है। कर्तृत्व ___आचार्य समन्तभद्र के कर्तृत्व के विषय में उनकी रचनाएं सार्थक हैं। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष में इनकी निम्नलिखित 12 रचनाएं बताई हैं - (1) वृहत् स्वयंभूस्तोत्र, (2) स्तुतिविद्या (जिनशतक), (3) देवागम स्तोत्र (आप्तमीमांसा), (4) युक्त्यनुशासन, (5) तत्वानुशासन, (6) जीव-सिद्धि, (7) प्रमाण-पदार्थ, (8) कर्मप्राभृतटीका, (9) गंधहस्तीमहाभाष्य, (10) रत्नकरण्ड श्रावकाचार, (11) प्राकृत-व्याकरण और (12) षट्खण्डागम के आद्य पांच खण्डों पर टीका। किन्तु विद्वान इसे प्रमाण
SR No.524765
Book TitleJain Vidya 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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