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________________ जैनविद्या 18 105 महत्वपूर्ण हैं जो उनकी विलक्षणता के द्योतक हैं। वे राजा को सम्बोधित करते हुए कहते हैं - हे राजन् ! समुद्र-वलयवाली इस पृथ्वी पर मैं ‘आज्ञासिद्ध' हूँ अर्थात् जो आज्ञा देता हूँ वह अवश्य पूरी होती है। और अधिक क्या कहूँ ? मैं 'सिद्ध सारस्वत' हूँ अर्थात् सरस्वती मुझे सिद्ध है। इन्हीं विशेषणों के साथ उन्होंने स्वयं को राजा के सम्मुख भिषग्' भी निरूपित किया है। सामान्यत: भिषग् वही होता है जिसने आयुर्वेद शास्त्र का अध्ययन कर उसमें निपुणता प्राप्त की हो। असाधारण व्यक्तित्व के धनी और विलक्षण प्रतिभासम्पन्न आचार्य समन्तभद्र के लिए आयुर्वेद शास्त्र में निष्णात् होना कोई कठिन बात नहीं थी। अत: उन्होंने लोकहित की भावना से प्रेरित होकर अपने आयुर्वेदीय ज्ञान के आधार पर जैन सिद्धान्तानुसारी लोकोपयोगी किसी आयुर्वेद ग्रंथ का प्रणयन किया हो - यह असम्भव प्रतीत नहीं होता। इस पद्य का अध्ययन करने से स्पष्ट ही प्रतीत होता है कि इस पद्य में श्री समन्तभद्र स्वामी ने अपने जिन विशेषणों का उल्लेख किया है वह आत्म-श्लाघावश नहीं किया है अपितु किसी राजदरबार में राजा के सम्मुख आत्म-परिचय प्रस्तुत करते हुए किया है। उस काल में किसी राजा के सम्मुख आत्म-परिचय में अपने मुख से इस प्रकार के विशेषण प्रयुक्त करना साधारण बात नहीं थी। क्योंकि उन्हें उसकी सार्थकता भी सिद्ध करनी होती थी। . स्वामी समन्तभद्राचार्य के असाधारण व्यक्तित्व के संदर्भ में यह पद्य निश्चय ही महत्वपूर्ण है। क्योंकि इससे उनकी अन्यान्य विशेषताओं के साथ-साथ उनका भिषगत्व (आयुर्वेदज्ञता) भी प्रमाणित होता है। इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे प्रमाण और मिलते हैं जिनसे प्रतीत होता है कि वे वैद्यक विद्या के पूर्ण ज्ञाता थे। उन्होंने अपने स्तोत्र ग्रंथों में भगवान का जो स्तुतिगान किया है उसमें उन्होंने भगवान को वैद्य की भांति सांसारिक तृष्णा रोगों का नाशक बतलाया है। श्री शंभवजिन का स्तवन करते हुए वे कहते हैं - हे शम्भव जिन ! सासांरिक तृष्णा-रोगों से पीड़ित जन के लिए आप इस लोक में उसी भाँति आकस्मिक वैद्य हुए हैं जिस प्रकार अनाथ (धन आदि से विहीन असहाय जन) के रोगोपशमन के लिए कोई चतुर वैद्य होता है। इसी प्रकार भगवान शीतलनाथ की स्तुति करते हुए उन्हें भिषगोपम निरूपति किया है। वे कहते हैं - जिस प्रकार वैद्य विष-दाह से मूर्च्छित स्वशरीर को विषापहार मंत्र के गुणों से (उसकी अमोघ शक्ति के प्रभाव से) निर्विष एवं मूर्छारहित कर देता है उसी प्रकार हे शीतल जिन, आपने सांसारिक सुखों की अभिलाषारूप अग्नि के दाह से - (चतुर्गति सम्बन्धी दुःख-सन्ताप से) मूर्छित हुए (हेयोपादेय के विवेक से शून्य हुए) अपने मन (आत्मा) को ज्ञानरूपी अमृतजल के सिंचन से मूर्छारहित-शान्त किया है। ये दोनों ही उद्धरण इस बात का संकेत करते हैं कि श्री समन्तभद्र स्वामी वैद्योचित गुणों और वैद्य द्वारा की जानेवाली क्रिया-चिकित्सा-विधि के पूर्ण ज्ञाता थे। इसलिए उन्होंने श्री शम्भव जिन और श्री शीतल जिन को वैद्य 'भिषग्' की उपमा देकर वैद्य का महत्व बढ़ाया है। वैद्यक विद्या का ज्ञान होने के कारण ही सम्भवत: उन्हें वैद्य और जिनेन्द्र देव के कतिपय कार्यों में समानता की प्रतीति हुई। इस कथन का आशय मात्र इतना ही है कि श्री समन्तभद्र स्वामी अन्य विषयों की भांति आयुर्वेद के ज्ञान से भी अन्वित थे। साथ ही यह तो सुविदित है कि जब वे भस्मक महाव्याधि से पीड़ित हुए तो स्वयं ही उसके उपचार में
SR No.524765
Book TitleJain Vidya 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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