________________
106
जैनविद्या 18
तत्पर हुए और कुछ काल पश्चात् उस पर पूर्ण विजय प्राप्त कर ली। अत: उनका ‘भिषग्' होना सार्थक है जो उनकी आयुर्वेदज्ञता की पुष्टि करता है। आयुर्वेद ग्रंथ कर्तृत्त्व ____ स्वामी समन्तभद्र की वर्तमान में कोई भी आयुर्वेद कृति उपलब्ध नहीं है। अत: कुछ विद्वान उनका आयुर्वेद कर्तृत्व संदिग्ध मानते हैं। वर्तमान में स्वामी समन्तभद्र की पांच कृतियां उपलब्ध हैं-देवागम (आप्त मीमांसा), स्वयम्भू स्तोत्र, युक्त्यनुशासन, जिनशतक (स्तुति विद्या) और रत्नकरण्ड श्रावकाचार। इनके अतिरिक्त 'जीवसिद्धि' नामक उनकी एक कृति का उल्लेख तो मिलता है, किन्तु वह अभी तक कहीं से उपलब्ध नहीं हुई है। ऊपर उनकी जिन कृतियों का उल्लेख किया गया है उनमें से किसी भी कृति का सम्बन्ध अयुर्वेद से नहीं है। सभी कृतियाँ जैन दर्शन, जैनाचार, स्तुतिविद्या आदि से सम्बन्धित हैं। अत: वर्तमान में उपलब्ध उनके ग्रंथों के आधार पर यह कह सकना कठिन है कि उन्होंने आयुर्वेद के किसी ग्रंथ की रचना की होगी।
इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि नवम शताब्दी के विद्वान श्री उग्रादित्य आचार्य ने अपने ग्रंथ कल्याणकारकम्' में स्पष्टतापूर्वक इस तथ्य को उद्घाटित किया है कि आचार्य समन्तभद्र ने आयुर्वेद विषय को अधिकृत कर किसी ग्रंथ की रचना की थी जिसमें विस्तारपूर्वक अष्टांग वैद्यक का प्रतिपादन किया गया है। उन्होंने आगे यह भी स्पष्ट किया है कि समन्तभद्र के उस 'अष्टांग संग्रह' ग्रंथ का अनुसरण करते हुए मैने संक्षेप में इस कल्याणकारम्' ग्रंथ की रचना की है। श्री उग्रादित्य आचार्य के इस उल्लेख से यह असंदिग्ध रूप से प्रमाणित होता है कि उनके काल में श्री समन्तभद्र स्वामी का अष्टांग वैद्यक विषयक कोई . महत्वपूर्ण ग्रंथ अवश्य ही विद्यमान एवं उपलब्ध रहा होगा। सिद्धान्त रसायन कल्प
- इसी संदर्भ में एक यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि कल्याणकारक ग्रंथ की प्रस्तावना में श्री वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री ने आचार्य समन्तभद्र स्वामी की अद्वितीय विद्वत्ता का निरूपण करते हुए उनके द्वारा 'सिद्धान्तरसायन कल्प' नामक वैद्यक ग्रंथ की रचना किए जाने का उल्लेख किया है। वे लिखते हैं कि पूज्यपाद के पहले महर्षि समन्तभद्र हर एक विषय में अद्वितीय विद्वत्ता को धारण करनेवाले हुए। आपने न्याय, सिद्धान्त के विषय में जिस प्रकार प्रौढ़ प्रभुत्व प्राप्त किया था उसी प्रकार आयुर्वेद के विषय में भी अद्वितीय विद्वत्ता प्राप्त की थी। आपके द्वारा सिद्धान्त रसायन कल्प' नामक एक वैद्यक ग्रंथ की रचना की गई थी जो अठारह हजार श्लोक परिमित थी। परन्तु आज वह उपलब्ध नहीं है और हमारी उदासीनता के कारण सम्भवत: अब वह कीटों का भोजन बन गई है। कहीं-कहीं उसके कुछ श्लोक मिलते हैं जिनका यदि संग्रह किया जाय तो 2-3 हजार श्लोक सहज ही संकलित हो सकते हैं । इस ग्रंथ की मुख्य विशेषता यह है कि अहिंसा-धर्मप्रेमी आचार्य ने अपने ग्रंथ में औषध-योगों में पूर्ण अहिंसा धर्म का ही समर्थन किया है। इसके अलावा इस ग्रंथ में जैन पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग एवं संकेत भी तदनुकूल दिए गए हैं। इसलिए अर्थ करते समय जैनमत की प्रक्रियाओं को ध्यान में रखकर अर्थ करना ही अभीष्ट है । उदाहरणार्थ 'रत्नत्रयौषध' का उल्लेख ग्रंथ में आया है। सर्व-सामान्य दृष्टि से इसका अर्थ होगा-- वज्रादि रत्नत्रयों के द्वारा