SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 104 जैनविद्या 18 श्रमणचर्या के परिपालन में ही निरन्तर तत्पर रहते थे। मुनि-चर्या का निर्दोष पालन करना उनके जीवन की प्रमुख विशेषता थी। वे असाधारण प्रतिभा के धनी, अध्यात्म-विद्या के पारंगत और जिनधर्म के धारक निर्गन्थवादी महान् व्यक्तित्व के धनी थे। उनके जीवन-क्रम, जीवन की असाधारण अन्यान्य घटनाओं तथा उनके द्वारा रचित ग्रंथों को देखने से ज्ञात होता है कि उनके द्वारा जैन धर्म का प्रभूत प्रचार एवं अपूर्व प्रभावना हुई। इसका एक मुख्य कारण यह है कि आप श्रद्धा, भक्ति और गुणज्ञता के साथ बहुत बड़े अर्हदभक्त और अर्हद्गुण प्रतिपादक थे जिसकी पुष्टि आपके द्वारा रचित स्वयम्भू स्तोत्र, देवागम, युक्त्यनुशासन और स्तुतिविद्या (जिनशतक) नामक स्तुति ग्रंथों से होती है। इन ग्रंथों से आपकी अद्वितीय अर्हद्भक्ति प्रकट होती है। एक ओर आप जहाँ क्षत्रियोचित तेज से देदीप्यमान अपूर्व व्यक्तित्वशाली पुरुष थे वहां आत्महित चिन्तन में तत्पर रहते हुए लोकहित की उत्कृष्ट भावना से परिपूरित थे। यही कारण है कि राज्य-वैभव के आधारभूत भौतिक सुख और गृहस्थ-जीवन के भोग-विलास के मोह में न फंसकर आपने त्यागमय जीवन को अंगीकार किया और साधुवेश धारणकर देशाटन करते हुए सम्पूर्ण देश में जैनधर्म की दुंदुभि बजाई। लगता है कि आपने अत्यन्त अल्प समय में ही जैन धर्म-दर्शन-न्याय और समस्त सैद्धान्तिक विषयों में अगाध पाण्डित्य अर्जित कर लिया था। क्योंकि देशाटन करते हुए वे प्राय: वहीं पहुँच जाते थे जहाँ उन्हें किसी महावादी या किसी वादशाला के होने का पता चलता था। वहाँ पहुँचकर वे अपने वाद का डंका बजाकर स्वत: ही वाद के लिए विद्वानों का आह्वान करते थे। यह तथ्य उनके उस पद्य से उद्घाटित होता है जो उन्होंने किसी राजा के सम्मुख आत्म-परिचय देते हुए प्रस्तुत किया था। आयुर्वेदज्ञता श्री समन्तभद्र स्वामी जैन सिद्धान्त, धर्म, दर्शन, और न्याय-शास्त्र के अगाध पाण्डित्य से परिपूर्ण महान् तार्किक एवं उद्भट विद्वान थे। उनके ज्ञान-रवि ने चारों ओर ऐसा प्रकाशपुंज फैला रखा था जिसमें जैन धर्म का महात्म्य निरन्तर उद्भासित था। इस संदर्भ में यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि इसके साथ ही वे आयुर्वेद शास्त्र में निष्णात कुशल वैद्य भी थे। क्योंकि निम्न पद्य में जहाँ उन्होंने स्वयं के आचार्य, कविवर, वादिराट, पण्डित (गमक), दैवज्ञ (ज्योर्तिविद्), मान्त्रिक (मंत्र विशेषज्ञ), तांत्रिक (तंत्र विशेषज्ञ), आज्ञासिद्ध, सिद्ध सारस्वत आदि विशेषण बताए हैं वहाँ आयुर्वेद शास्त्र में पारंगत कुशल वैद्य होने के कारण उन्होंने स्वयं के लिए भिषग्' विशेषण भी उल्लिखित किया है जो उनकी आयुर्वेदज्ञता की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। आचार्योऽहं कविरहमहं वादिराट् पण्डितोऽहं । देवज्ञोऽहं भिषगहमहं मान्त्रिस्तान्त्रिकोहं । राजन्नस्यां जलधि वलया मेखलायामिलायाम् । आज्ञासिद्धः किमिति बहुना सिद्धसारस्वतोहम् ॥ इस श्लोक में आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने अपने जो विशेषण बतलाएं हैं उनसे असाधारण व्यक्तित्व, बहुशास्त्रज्ञता एवं प्रकाण्ड पाण्डित्य का आभास सहज ही मिल जाता है। इसमें अन्त के दो विशेषण विशेष
SR No.524765
Book TitleJain Vidya 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy