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जैनविद्या 18
करता हुआ जीवनपर्यन्त पंच महाव्रतों को धारण करता है। ऐसा साधक शोक, भय, विषाद, स्नेह-द्वेष
और अरति से पृथक् होता हुआ वैराग्यवर्द्धक धर्मशास्त्रों की ओर प्रवृत्त होता है। फिर क्रम से आहार को छोड़कर दूध का सेवन, फिर इनका भी परित्याग कर गर्म जल (प्रासुक जल) का सेवन, अन्ततोगत्वा इसे भी त्यागकर उपवास करता हुआ णमोकार महामंत्र के ध्यान में लवलीन होता हुआ सावधानीपूर्वक चेतना के साथ अपने प्राणों का विसर्जन करता है । विवेच्य कृति में सल्लेखना के अतीचारों (जीविताशंसा, मरणाशंसा, भय, मित्रस्मृति तथा निदान) का भी उल्लेख हुआ है। इनमें अलिप्त रहकर सल्लेखनाधारी जीव मरणोपरान्त स्वर्ग और मोक्षपद पर प्रतिष्ठित होता है। मोक्ष या निःश्रेयस का अभिप्राय है जन्म-जरा आदि दोषों से रहित अविनाशी सुख । इस पद पर अनन्त ज्ञानादि गुणों के धारक सिद्ध भगवान ही अनन्त काल तक सुखपूर्वक विराजते हैं। सिद्धात्मा कर्मरहित होने के कारण किट्ट-कालिमा आदि रहित सुवर्ण के समान प्रकाशमान होते हैं और वे तीन लोक के ऊपर कलश के समान शोभा पाते हैं ।
श्रावक से सिद्धावस्था तक की यात्रा के लिए व्यक्ति को क्रमशः श्रेणीबद्ध नियमों का पालन करना होता है। श्रावक के ये नियम प्रतिमा से विभूषित हैं। एक-एक प्रतिमा को पालता हुआ श्रावक मुनिधर्म को अंगीकारकर अन्ततोगत्वा सिद्धावस्था की ओर उन्मुख होता जाता है। ये प्रतिमाएं ग्यारह होती हैं दर्शनप्रतिमा, व्रतप्रतिमा, सामायिकप्रतिमा, प्रोषधप्रतिमा, सचित्तत्यागप्रतिमा, रात्रिभुक्तित्यागप्रतिमा, ब्रह्मचर्यप्रतिमा, आरम्भत्यागप्रतिमा, परिग्रहत्यागप्रतिमा, अनुमतित्यागप्रतिमा तथा उद्दिष्टत्यागप्रतिमा । इन प्रतिमाओं को धारण करनेवाला श्रावक तीन प्रकार से विभक्त है- एक जघन्य, दूसरा मध्यम तथा तीसरा उत्तम श्रावक। जघन्य श्रावक पहली प्रतिमा से छठी प्रतिमा तक काधारी होता है जबकि मध्यम श्रेणी श्रावक सातवीं से नवमी प्रतिमा तक का धारण करनेवाला होता है। दशवीं तथा ग्यारहवीं प्रतिमाधारी श्रावक उत्कृष्ट श्रावक कहलाता है। विवेच्य कृति में प्रतिमाओं के स्वरूप को भली-भाँति दर्शाया गया है ।
अन्त में इन्द्रवज्रा छन्द में आचार्य समन्तभद्र इस ग्रन्थ के माहात्म्य को प्रकट करते हुए कहते हैं कि जिसने अपने आप निर्दोष ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूपी रत्नों के पिटारे को प्राप्त किया है उसको तीनों लोकों में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की सिद्धिरूप स्त्री मानो पति की इच्छा से ही स्वयं प्राप्त हो जाती है। यथा
- येन स्वयंवीतकलंकविद्या-दृष्टिक्रियारत्नकरण्डभावम्।
नीतस्तमायाति पतीच्छयेव, सर्वार्थसिद्धिस्त्रिषु विष्टपेषु॥149॥
सवार्थसिद्धि, 9.2.409.11। रत्नकरण्ड श्रावकचार, श्लोक 2।
वही, श्लोक 4-411 __ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग4, पृष्ठ 3451 5. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक 5-101
वही, श्लोक 22-241 वही, श्लोक 11-201 नियमसार, ता.वृ, 1121
मूलाचार, 531 10. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 25-271