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________________ जैन विद्या 18 पादोदक, अर्चा, प्रणाम, मनशुद्धि, वचनशुद्धि, कामशुद्धि तथा भोजनशुद्धि) आदर-सत्कार करना वस्तुतः दान है। यथा 96 नवपुण्यैः प्रतिपत्तिः, सप्तगुण समाहितेन शुद्धेन । अपसूनारम्भाणामार्याणमिष्यते दानम् ||113। आचार्य विवेच्यकृति में 'दानं वैयावृत्यं' कहते हैं अर्थात् धर्म का साधन करने के लिए गुणी पात्र को भक्ति एवं विधिपूर्वक फल की आशा नहीं रखते हुए शक्त्यानुसार आहार, औषध, उपकरण आवास का दान वैयावृत्य है । यथा - आहारौषधयोरप्युपकरणावासयोश्च दानेन । वैयावृत्यं ब्रुवते, चतुरात्मत्वेन चतुरस्राः ||117|| आचार्य दान का माहात्म्य बताते हुए कहते हैं कि विधिपूर्वक सत्पात्र को दान करने से अनेक उत्तम फल प्राप्त होते हैं जिस प्रकार जल रक्त को धो देता है उसी प्रकार गृहरहित मुनियों को दिया हुआ दान भी गृहकार्यों से संचित ज्ञानावरणादि कर्मों को निश्चय से दूर करता है। इतना ही नहीं तपस्वी मुनियों को प्रणाम करने से उच्चगोत्र, दान देने से पाँचों इन्द्रियों के भोग-उपभोग, नवधा भक्ति करने से प्रतिष्ठा, भक्ति से सुन्दर रूप और उनकी स्तुति करने से यशकीर्ति का प्राप्त होना बताया है। इसी क्रम में आचार्य जिनेन्द्रपूजा पर बल देते हुए कहते हैं कि इच्छित फल देनेवाले और कामदेव को भस्म करनेवाले जिनेन्द्र देव के चरणों में सदा आदरपूर्वक सर्व दुःखों को हरनेवाली पूजा करनी चाहिए। भगवान की भक्तिपूर्वक पूजा से निश्चय ही स्वर्ग आदि समस्त पद प्राप्त होते हैं" । विवेच्य कृति में सल्लेखना जैसे गूढ़ विषय का स्पष्ट व सरल शब्दावलि में निरूपण निश्चयेन आचार्य समन्तभद्र की ज्ञान - गरिमा को उद्घाटित करता है । सल्लेखना जैन दर्शन से अनुप्राणित क पारिभाषिक शब्द है जिसका अर्थ है भली प्रकार से काय और कषाय का लेखन करना अर्थात् कृश करना । सल्लेखना में बहिरंग में शरीर का और अन्तरंग में कषायों का, फिर उत्तरोत्तर काय और कषाय को पुष्ट करनेवाले कारणों को घटाते हुए भलीभांति लेखन या कृश करना होता है 2 । सल्लेखना की व्याख्या विवेच्य कृति में इस प्रकार से अभिव्यक्त है कि उपायरहित उपसर्ग, दुष्काल, बुढ़ापा, रोगादि आने पर रत्नत्रय स्वरूप, धर्म का उत्तम रीति से पालनार्थ शरीर छोड़ना सल्लेखना है । यथा - उपसर्गे दुर्भिक्षे, जरसि रूजायां च निःप्रतीकारे । धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्या: ।।122।। समाधिमरण इसी का अपर नाम है। सल्लेखना आत्महत्या नहीं है अपितु आज भी अपनी प्रासंगिकता को समेटे हुए है। सल्लेखना की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा गया है कि आयु के अन्त में संन्यासपूर्वक मरण होना ही तप का फल है । अस्तु शक्त्यानुसार इसको साधने का प्रयत्न करना चाहिए। सल्लेखना की अपनी एक विधि है, विधान है। उस विधि का भी उल्लेख विवेच्य कृति में परिलक्षित है। समाधिमरण करनेवाला व्रती सर्वप्रथम अपने कुटुम्बीजन तथा दूसरे लोगों पर क्षमा करता हुआ उनसे अपने प्रति भी मा चाहता है तदुपरान्त कृत-कारित अनुमोदनपूर्वक समस्त पापों की दोषरहित आलोचनाकर चित्त को परिशुद्ध -
SR No.524765
Book TitleJain Vidya 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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