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________________ जैनविद्या 18 पालनेवाला गृहस्थ सहसा मरण आने पर, जीवन की आशा न रहने पर जिसके बंधुगण ने दीक्षा लेने की सम्मति नहीं दी है, ऐसे प्रसंग में सल्लेखना धारण करता है । प्रस्तुत कृति में शिक्षाव्रतों के अन्तर्गत देशावकाशिक व्रत के स्वरूप को स्थिर करते हुए इस व्रत में क्षेत्र और काल की मर्यादा को भी स्पष्ट किया गया है। आचार्य कहते हैं कि दिव्रत की भांति इस व्रत में भी मर्यादा के बाहर आना-जाना नहीं होने से स्थूल और सूक्ष्म दोनों पापों का परित्याग हो जाता है। इसलिए देशावकाशिक व्रती के भी उपचार से महाव्रत कहे जाते हैं। यथा सीमान्तानां परतः स्थूलेतरपञ्चपापसंत्यांगात् । देशावकाशिकेन च, महाव्रतानि प्रसाध्यन्ते ॥95॥ सामायिक शिक्षाव्रत के लक्षण, विधि, समय, स्थान के साथ परीषह सहन करने पर विशेष बल दिया गया है । सामायिक के समय क्या चिन्तन करना चाहिए- इस पर आचार्य कहते हैं कि संसार, अशरण और अशुभरूप आदि है तथा मोक्ष, शरण और शुभरूप आदि है। अस्तु, संसार में सच्चा सुख नहीं है, उस सुख के लिए मोक्ष पाने का प्रयत्न करना चाहिए। यथा - अशरणमशुभमनित्यं, दुःखमनात्मानमावसामि भवम्। मोक्षस्तविपरीतात्मेति ध्यायन्तु सामयिके 104।। प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत में प्रत्येक चतुर्दशी और अष्टमी के दिन धर्मभाव से चारों प्रकार के आहार का त्याग किया जाता है। इतना ही नहीं उपवास के दिन पंच पापों का, शृंगार, आरम्भ, गन्ध, पुष्प आदि का तथा स्नान, अञ्जन और नस्य-हुलास आदि का त्याग करना होता है। वास्तव में उपवास के दिन समय व्यर्थ न खोकर उत्साह से धर्मग्रन्थों के पढ़ने और सुनने में मन लगाया जाता है । वैयावृत्य शिक्षा व्रत में प्रत्युपकार की वाञ्छा से रहित केवल धर्मबुद्धि से गृहत्यागी मुनिराज के लिए आहार, कमण्डलु, पिच्छी, शास्त्र आदि का दान देना होता है। वैयावृत्य में व्रती पुरुषों के गुणों का आदर करते हुए उनके कष्टों को दूर करने का प्रयत्न किया जाता है। ___इन व्रतों के प्रसंग में दान एवं अर्हन्त भगवान की पूजा करने का उल्लेख मिलता है। गृहस्थ में दान की प्रवृत्ति पायी जाती है। रत्नत्रय से युक्त जीवों के लिए अपने वित्त का त्याग करने या रत्नत्रय के योग्य साधनों के प्रदान करने की इच्छा का नाम दान है । इसे दो रूपों में रूपायित किया जा सकता है - एक अलौकिक दान जो साधकों को दिया जाता है तथा दूसरा लौकिक दान जो साधारण व्यक्तियों के लिए होता है। जैसे समदत्ति, करुणादत्ति, औषधालय, स्कूल, सदाव्रत्त, प्याऊ आदि खुलवाना इत्यादि । अलौकिक दान चार प्रकार का होता है यथा आहारदान, औषधदान, ज्ञानदान तथा अभयदान । यह परम सत्य है कि निरपेक्ष बुद्धि से सम्यक्त्वपूर्वक सद्पात्र को दिया गया अलौकिक दान दातार को परम्परा-मोक्ष प्रदान करता है। पात्र, कुपात्र व अपात्र को दिये गए दान में भावों की प्रधानता रहती है। भावानुरूप ही फल की प्राप्ति होती है । आचार्य समन्तभद्र विवेच्यकृति में दान के सन्दर्भ में अपने विचार प्रकट करते हुए कहते हैं कि सप्तगुण सहित (श्रद्धा, सन्तोष, भक्ति, विज्ञान, लोभ का अभाव, क्षमा, सत्य), वर्णसंकर आदि दोष रहित श्रावक के द्वारा पंच सूना (ऊखली, चक्की, चूल्हा, पानी के घट तथा प्रमार्जन-झाडू बुहारी आदि) के आरम्भ से रहित मुनि आदि श्रेष्ठ पुरुषों का नवधा भक्तिपूर्वक (पडिगाहन, उच्चस्थान,
SR No.524765
Book TitleJain Vidya 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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