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जैनविद्या 18
सम्यग्ज्ञान के संदर्भ में ही चार अनुयोगों - प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोगके स्वरूप को भी स्थिर किया गया है। - रत्नत्रय का तृतीय अवयव है सम्यक् चारित्र। जो ज्ञानी पुरुष संसार के कारणों को दूर करने के लिए उद्यत है उसके कर्मों के ग्रहण करने में निमित्तभूत क्रिया के त्याग को सम्यक् चारित्र कहते हैं। यही बात विवेच्य कृति में इस प्रकार से अभिव्यक्त है कि हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील तथा परिग्रह नामक पंच पापों का त्याग-परित्याग सम्यक् चारित्र है। यह मिथ्यादर्शी तथा मिथ्याज्ञानी की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि और सम्यग्ज्ञानी के ही होता है । सकल और विकल नाम से सम्यक् चारित्र के दो भेद निरूपित हैं जिसमें सकल चारित्र मुनियों तथा विकल चारित्र गृहस्थों के लिए निर्दिष्ट है। यहाँ सकल का अभिप्राय है उपर्युक्त पंच पापों का सर्वथा त्याग अर्थात् महाव्रतों का अंगीकार तथा विकल से तात्पर्य है इन पंच पापों का एक-देश त्याग अर्थात् अणुव्रतों का अनुपालन। आचार्य समन्तभद्र ने विकल चारित्र के तीन भेद बताए हैं - (1) अणुव्रत (2) गुणव्रत (3) शिक्षाव्रत । इनमें भी क्रमश: पाँच (अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत, परिग्रह परिमाणाणुव्रत), तीन (दिग्व्रत, अनर्थदण्डव्रत, भोगोपभोग परिमाणव्रत), तथा चार (देशावकाशिक, सामायिक प्रोषधोपवास, वैयावृत्य) प्रभेदों का उल्लेख मिलता है । इस प्रकार विकलचारित्र कुल बारह भेदों में परिगणित है । जिसे निम्न चार्ट के माध्यम से सरलता के साथ समझा जा सकता है। यथा -
चारित्र
सकल चारित्र
(मुनिवर्ग से सम्बन्धित)
विकल चारित्र (गृहस्थ (श्रावक) समुदाय से
सम्बन्धित)
अणुव्रत
गुणव्रत
- शिक्षाव्रत
अहिंसाणुव्रत सत्याणुव्रत अचौर्याणुव्रत ब्रह्मचर्याणुव्रत | परिग्रह परिमाणाणुव्रत
दिव्रत अनर्थ दण्डव्रत भोगोपभोगपरिमाणव्रत
. प्रोषधोपवास
- देशावकाशिक सामायिक
वैयावृत्य
इस प्रकार चारित्र में व्रत की प्रधानता असन्दिग्ध है। व्रत का अर्थ है यावज्जीवन हिंसादि पापों की एकदेश (आंशिक) या सर्वदेश (पूर्णरूप) निवृत्ति । विवेच्य कृति में व्रत के विषय में कहा गया है कि जो वस्तु अनिष्ट और अनुपसेव्य है उसका भी त्याग करना हितकर होता है क्योंकि योग्य विषयों का भाव