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जैनविद्या 18
(विचार) पूर्वक त्यागना व्रत कहलाता है यथा
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यदनिष्टं तद्वतयेद्यच्चानुपसेव्यमेतदपि जह्यात् । अभिसन्धिकृताविरति - विषयाद्योग्याद्व्रतं भवति ॥86 |
व्रत के दो रूप मिलते हैं - एक महाव्रत तथा दूसरा अणुव्रत। जब व्रत मन, वचन व काय तथा कृत, कारित, अनुमोदनापूर्वक सर्वदेशीय रूप में किया जाता है तो वह महाव्रत की संज्ञा पाता है। यह पहला रूप है। महाव्रत मुनियों के लिए ही निर्दिष्ट हैं"। व्रत का दूसरा रूप है अणुव्रत । जिसके लक्षण भेदअभेदों के साथ विस्तारपूर्वक विवेच्यकृति में द्रष्टव्य हैं। अणुव्रतों के प्रसंग में अतिचारों का भी वर्णन सुन्दर ढंग से अभिव्यक्त है" । विवेच्यकृति में अतिचार निम्नांकित शब्दों में प्रयुक्त है यथा-अतिचार, व्यतिचार, व्यतिक्रम, व्यतीपात, अत्याश, अत्याश व्यतीति, अतिगम तथा व्यतिलंघन । अहिंसाणुव्रत अतिचारों के प्रसंग में व्यतिचार, सत्याणुव्रत के अतिचारों में व्यतिक्रम, अचौर्याणुव्रत के अतिचारों के वर्णन में व्यतीपात ब्रह्मचर्याणुव्रत के अतिचारों में व्यतिचार, परिग्रह परिमाणाणुव्रत के अतिचारों में अतिचार तथा दिग्व्रत के अतिचारों के वर्णन में अत्याश, अनर्थदण्डव्रत के अतिचारों के संदर्भ में व्यतीति, भोगोपभोगपरिमाणव्रत के अतिचारों में व्यतिक्रम तथा शिक्षाव्रतों के अन्तर्गत देशावकाशिक व्रत के अतिचार के वर्णन में अत्याश, सामायिक के अतिचारों के प्रसंग में अतिगम, प्रोषधोपवास के अतिचारों में व्यतिलंघन तथा वैयावृत्य के अतिचारों में व्यतिक्रम शब्द का प्रयोग अतिचार शब्द के लिए प्रयुक्त है" । इस बात से यह स्पष्ट है कि आचार्य समन्तभद्र का शब्द - भाण्डार कितना गहन और व्यापक है। एक शब्द के व्यवहार लिए अनेक शब्दों का प्रयोग वस्तुत: बड़ी बात है ।
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अतिचारों के वर्णन के उपरान्त अणुव्रत के माहात्म्य को विवेच्य कृति में दर्शाया गया है जिसमें . कहा गया है कि पञ्चाणुव्रतों के अतिचाररहित अनुपालन से जीव स्वर्ग में जन्म धारण करता है। उसे वहाँ जन्म से ही अवधि ज्ञान, अणिमा आदि आठ गुण तथा मनोहर वैक्रियिक शरीर प्राप्त होता है। यथा - पञ्चाणुव्रतनिधयो, निरतिक्रमणाः फलन्ति सुरलोकम् । यत्रावधिरष्टगुणा, दिव्यशरीरं च लभ्यन्ते ॥16311
माहात्म्य के साथ ही एक ओर जहाँ अणुव्रत धारण करनेवाले कतिपय जगत्प्रसिद्ध पुरुषों के नाम - यमपाल चाण्डाल, धनदेव, वारिषेण, नीली और जयकुमार बताए गए हैं वहीं दूसरी ओर पंच पापों में लीन प्रमुख व्यक्तियों के नाम- धनश्री, सत्यघोष, तापसी, यमदण्ड कोतवाल, श्मश्रुनवनीत भी परिगणित हैं 20 । नामावलि के उपरान्त आचार्य देव ने श्रावकों के अष्ट मूलगुणों की भी चर्चा की है जो अत्यन्त उपयोगी कही जा सकती है। उनके द्वारा प्रतिपादित अष्ट मूलगुण इस प्रकार से हैं- मद्य त्याग, मांसत्याग, मधु-त्याग तथा अहिंसादि पाँच अणुव्रतों का अनुपालन। यथा -
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मद्य-मांस-मधुत्यागैः सहाणुव्रत पञ्चकम् ।
अष्टौ मूलगुणानाहुर्गृहिणां श्रमणोत्तमाः ॥66॥
अन्य अनेक जैनाचार्यों ने अपनी कृतियों में अष्ट मूलगुणों की गणना निम्न प्रकार से की है - मद्यमधु-मांस तथा पाँच उदुम्बर फलों का परित्याग ; मद्य-मांस-मधु, रात्रिभोजन व पाँच उदुम्बर फलों का