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________________ जैनविद्या 18 अप्रेल-1996 इसमें तीन विशेषताएँ-त्रिमूढा, पोढ़, अष्टांग तथा अस्मयं जुड़ी हुई हैं जिनका विवेचन विवेच्य कृति में परिलक्षित है। सच्चादेव वीतरागी, सर्वज्ञ तथा हितोपदेशी होता है। सच्चा शास्त्र वीतराग सर्वज्ञ देव के उपदेशानुसार प्रणीत शास्त्र है तथा सांसारिक विषय-विकारों से उदासीन आरम्भ-परिग्रहरहित और ज्ञान-ध्यान-तप में लवलीन साधक सच्चा गुरु कहलाता है । इसी संदर्भ में तीन मूढ़ताओं-लोक मूढ़ता, देव-मूढ़ता, तथा पाषण्डि-मूढ़ता (गुरु-मूढ़ता) का भी उल्लेख हुआ है । सम्यग्दर्शन के आठ अंगों - नि:शंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य, प्रभावना', - के विवेचनोपरान्त इन अंगों की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि नि:शंकित आदि अंगों से रहित सम्यग्दर्शन संसार-परम्परा को नष्ट-विनष्ट करने के लिए समर्थ नहीं है क्योंकि न्यूनाक्षरोंवाला मंत्र विषवेदना को दूर करने में सक्षम नहीं होता है। यथा - नांगहीनमलं छत्तुं दर्शनं जन्मसन्ततिम् । नहि मन्त्रोऽक्षरन्यूनो निहन्ति विषवेदनाम्॥21॥ - सम्यग्दर्शन की तीसरी विशेषता है -अस्मयं अर्थात् मदरहित। 'मद' शब्द का अर्थ है अहंकार। नियमसार में मद शब्द मदन या काम परिणाम के अर्थ में प्रयुक्त है । यह मद आठ प्रकार का होता है - विज्ञान, ऐश्वर्य, आज्ञा, कुल, बल, तप, रूप तथा जाति । विवेच्य कृति में मद के लक्षणों में आठ भेद इस प्रकार से निरूपित हैं - ज्ञानमद, पूजामद, कुलमद, जातिमद, बलमद, ऋद्धिमद, तपमद तथा शरीरमद। आचार्य ने मद दूर करने के उपदेश में बताया कि यदि पापों का नाश हो गया तो पुण्य का बन्ध होने से उत्तम कुल आदि सब सम्पत्तियाँ स्वयमेव मिल जाती हैं और यदि पापों का आस्रव है अर्थात् यदि पाप आते रहते हैं तो उत्तम कुल आदि की प्राप्ति पर भी उनसे कोई लाभ नहीं हो सकता। अत: कुल आदि आठों मद नहीं करना चाहिए । यथा यदि पापनिरोधोऽन्य-सम्पदा किं प्रयोजनम् । अथ पापासवोऽस्त्यन्य-सम्पदा किं प्रयोजनम् ॥ 27 ॥ सम्यग्दर्शन के स्वरूप को जान लेने पर उसका माहात्म्य अपने आप प्रकट हो जाता है। सम्यग्दर्शन के माहात्म्य की भी चर्चा विवेच्य कृति में द्रष्टव्य है। यहाँ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान-चारित्र की अपेक्षा श्रेष्ठतम रूप में प्रतिष्ठित है। मोक्ष-मार्ग में यही मुख्य है, बिना इसके इन दोनों का भी होना असम्भव है। अत: सर्वकाल-क्षेत्रों में सम्यग्दर्शन कल्याणकारी एवं मंगलकारी तत्व है। रत्नत्रय का द्वितीय अवयव है सम्यक् ज्ञान। विवेच्य कृति में आर्या छन्द में इसका लक्षण प्रतिपादित हुआ है जिसमें कहा गया है कि जो पदार्थ जैसा है उसको उसी रूप में जानना सम्यग्ज्ञान है। पदार्थ को हीनाधिक, सन्देहसहित और विपरीत जानना मिथ्याज्ञान है जो संसार का कारण है। यथा - अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं विनाच विपरीतात्। निःसन्देहं वेद यदा हुस्तज्ज्ञानमागमिनः ।।42।।
SR No.524765
Book TitleJain Vidya 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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