SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 60 जैनविद्या 14-15 जुली अवस्था को लेश्या' कहा गया है। धवला में लेश्या का अर्थ स्पष्ट किया गया है कि जो आत्मा को कर्मों से लिप्त करती है उसको लेश्या' कहते हैं अथवा जो आत्मा और कर्म का सम्बन्ध करनेवाली है उसे 'लेश्या' कहते हैं। लेश्या के छः प्रकार हैं - कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, पीतलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या। जो लेश्या तीव्र क्रोध, वैर, अधर्म, दुष्ट आदिरूप हो उसे 'कृष्णलेश्या' कहते हैं। जो अतिनिद्रा, धन-धान्य की तीव्र लालसा आदिरूप हो उसे 'नीललेश्या' कहते हैं। दूसरों के ऊपर क्रोध करने, निन्दा करने, दुःख देने, दोष लगाने आदिरूप लेश्या को 'कापोतलेश्या'; कार्यअकार्य, सेव्य-असेव्य को जानने, समदर्शी, दया, दान आदिरूप लेश्या को 'पीतलेश्या'; त्याग, निर्मल, क्षमा, साधुजनों की पूजा आदिरूप लेश्या को 'पद्मलेश्या' और राग-द्वेष रहित रूप लेश्या को 'शुक्ललेश्या' कहते हैं। इन छ: लेश्याओं में से कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या मिथ्यादृष्टि से असंयतदृष्टि तक के गुणस्थानों के अन्वेषण स्थान हैं और पीतलेश्या तथा पद्मलेश्या मिथ्यादृष्टि से अप्रमत्तसंयत तक के गुणस्थानों के अन्वेषण-स्थान हैं तथा शुक्ललेश्या मिथ्यादृष्टि से सयोगिकेवली तक के गुणस्थानों के अन्वेषण-स्थान हैं। लेश्या और कषाय जीव के बन्धन के कारण है, क्योंकि ये कर्म-पुद्गल को जीव की ओर आकृष्ट करते हैं जिससे जीव और कर्म-पुद्गल का संयोग हो जाता है। जीव का पुद्गल से संयोग होने पर उसके शुद्ध स्वरूप अथवा गुणों में न्यूनता आ जाती है अर्थात् जीव के अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त शक्ति में न्यूनता आ जाती है। किस जीव के ज्ञान आदि में कितनी न्यूनता आती है - यह इस बात पर निर्भर करता है कि उस जीव का किस प्रकार के तथा कितने कर्म-पुद्गलों से संयोग हुआ है। जिस जीव के साथ 'ज्ञान आवरण कर्म-पुद्गल' अधिक संयुक्त है उसके ज्ञान में न्यूनता अधिक होती है और जिसके साथ कम संयुक्त होते हैं उसके ज्ञान में न्यूनता कम होती है। जिस जीव के साथ 'दर्शन आवरण कर्म-पुद्गल' अधिक संयुक्त होते हैं उसके दर्शन में न्यूनता अधिक होती है और जिसके साथ कम संयुक्त है उसके दर्शन में न्यूनता कम होती है। प्रश्न उठता है कि 'ज्ञान' आदि से क्या तात्पर्य है ? यहाँ ज्ञान से तात्पर्य है जिसके द्वारा अर्थ को जाना जाता है अथवा जो अर्थ को प्रकाशित करता है उसे ज्ञान कहते हैं। ज्ञान दो प्रकार का है - प्रत्यक्ष और परोक्ष। परोक्ष के दो प्रकार हैं - मतिज्ञान और श्रुतज्ञान तथा प्रत्यक्ष के तीन प्रकार हैं - अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान। इस प्रकार ज्ञान के कुल पाँच प्रकार हैं। ____ पाँच इन्द्रियों और मन की सहायता से जो ज्ञान होता है उसे 'मतिज्ञान' कहते हैं। मतिज्ञान के चार प्रकार हैं - अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा। शब्द और धूम आदि लिंग के द्वारा जो एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ का ज्ञान होता है उसे 'श्रुतज्ञान' कहते हैं। 36 शब्द के निमित्त से उत्पन्न होनेवाला श्रुतज्ञान दो प्रकार का है - अंग और अंगबाह्य । समस्त मूर्त पदार्थों को प्रत्यक्ष रूप से जाननेवाले ज्ञान को अवधिज्ञान' कहते हैं। मन का आश्रय लेकर मनोगत भावों का साक्षात्कार करनेवाले ज्ञान को मन:पर्ययज्ञान कहते हैं और तीनों कालों के समस्त पदार्थों को साक्षातरूप से जाननेवाले ज्ञान को मनः पर्ययज्ञान कहते हैं और तीनों कालों के समस्त पदार्थों को साक्षातरूप से जाननेवाले ज्ञान को 'केवलज्ञान' कहते हैं।
SR No.524762
Book TitleJain Vidya 14 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1994
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy