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________________ जैनविद्या 14-15 परिस्पन्द को 'औदारिक काययोग' कहते हैं और अपूर्ण औदारिक शरीर के निमित्त से होनेवाले योग को 'औदारिकमिश्र काययोग' कहते हैं । वैक्रियिक शरीर के निमित्त से होनेवाले योग को 'वैक्रियिक काययोग' कहते हैं और अपूर्ण वैक्रियिक शरीर के निमित्त से होनेवाले योग को 'वैक्रियिकमिश्र काययोग' कहते हैं। आहारक शरीर के निमित्त से होनेवाले योग को 'आहारक काययोग' कहते हैं और अपूर्ण आहारक शरीर के निमित्त से होनेवाले योग को 'आहारकमिश्र काययोग' । कार्मण शरीर के निमित्त से होनेवाले योग को 'कार्मण काययोग' कहते हैं। इन सात काययोगों में से औदारिक और औदारिकमिश्र काययोग में प्रथम तेरह गुणस्थान होते हैं, वैक्रियिक तथा वैक्रियिकमिश्र काययोग में प्रथम चार गुणस्थान, आहारक और आहारकमिश्र एक प्रमत्तसंयत गुणस्थान और कार्मण काययोग में प्रथम तेरह गुणस्थान होते हैं 30 में 59 उपर्युक्त तीनों योग जीव की समस्त क्रियाओं के, शारीरिक अथवा मानसिक क्रियाओं के आधार हैं । वचनयोग और काययोग शारीरिक क्रियाओं के आधार हैं तथा मन और मनोयोग मानसिक क्रियाओं के अर्थात् मानसिक भावों के । मानसिक भाव अनेक प्रकार के होते हैं, जिनमें से कुछ भाव लिंग के अनुसार काम अथवा मैथुन रूप होते हैं। उन काम अथवा मैथुन रूप भावों को 'वेद' कहा गया है। धवला में वेद का लक्षण किया गया है कि आत्म-प्रवृत्ति में मैथुनरूप चित्तविक्षे का उत्पन्न होना 'वेद' है, 31 अथवा वेद नाम नोकषाय कर्म के उदय से उत्पन्न होनेवाले भाव को 'वेद' कहते हैं। यहाँ प्रश्न उठता है कि 'कषाय' और 'नोकषाय' से क्या तात्पर्य है ? इस प्रश्न पर आगे विचार करेंगे। वेद तीन प्रकार का है - स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद । जो अपने को स्त्रीरूप अनुभव करे तथा पुरुष साथ मैथुन सेवन की अभिलाषा करे उसे 'स्त्रीवेद' कहते हैं। जो अपने को पुरुषरूप अनुभव करे तथा स्त्री-विषयक अभिलाषा करे उसे 'पुरुषवेद' कहते हैं और जिसके स्त्री तथा पुरुष-विषयक दोनों प्रकार के मैथुन की अभिलाषा पाई जाये उसे 'नपुंसकवेद' कहते हैं 32 ये तीनों वेद मिथ्यादृष्टि से अनिवृत्तिकरण तक के गुणस्थानों के अन्वेषण - स्थान हैं 33 - ऊपर वेद के लक्षण में आये 'नोकषाय' शब्द को लेकर प्रश्न उठाया कि 'कषाय' से क्या तात्पर्य है ? इस प्रश्न के जवाब में कहा गया है कि जो सुख-दुःख को उत्पन्न करनेवाले कर्मरूपी क्षेत्र को फल उत्पन्न करने के योग्य बनाये, उसे 'कषाय' कहते हैं 34 कषाय के चार प्रकार हैं क्रोध, मान, माया और लोभ । सुख-दुःख को उत्पन्न करनेवाले कर्मरूपी क्षेत्र को जब क्रोध फल उत्पन्न करने के योग्य बनाता है उसे 'क्रोधकषाय' कहते हैं; जब मान फल उत्पन्न करने के योग्य बनाता है उसे 'मानकषाय' कहते हैं, जब माया फल उत्पन्न करने के योग्य बनाती है उसे 'मायाकषाय' कहते हैं और जब लोभ फल उत्पन्न करने के योग्य बनाता है उसे 'लोभकषाय' । इन कषायों में जब गुणस्थान का अन्वेषण किया जाता है तब उन्हें 'कषाय मार्गणा' कहते हैं । इन चार कषायों में से प्रथम तीन कषायों में मिथ्यादृष्टि से अनिवृत्तिकरण तक के गुणस्थान होते और लोभ कषाय में मिध्यादृष्टि से सूक्ष्मसांपरायशुद्धिसंयत तक के गुणस्थान 135 पीछे 'योग' की चर्चा की गई है; उस 'योग' और 'कषाय' की मिली-जुली एक अन्य अवस्था उत्पन्न होती है जिससे आत्मा का बन्धन होता है। योग और कषाय की उस मिली
SR No.524762
Book TitleJain Vidya 14 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1994
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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