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________________ जैनविद्या 14-15 उपर्युक्त पाँच काय स्थावर काय हैं; क्योंकि उनकी उत्पत्ति में स्थावर नामकर्म का उदय निमित्त होता है अथवा उनमें स्थावर नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुई विशेषताएँ पाई जाती हैं। इन पाँच स्थावर कायों में 'मिथ्यादृष्टि' गुणस्थान पाया जाता है अर्थात् पाँच स्थावर काय मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का अन्वेषण - स्थान है । 23 58 त्रस नामकर्म के उदय से संचित काय को 'सकाय' कहते हैं अर्थात् जिस काय के संचय में त्रसकाय नामकर्म का उदय निमित्त हो उसे 'त्रसकाय' कहते हैं अथवा त्रस जीवों के काय को 'सकाय' कहते हैं । दो इन्द्रिय से पाँच इन्द्रिय तक के जीवों के काय त्रसकाय के भेद हैं। सकाय मिथ्यादृष्टि से अयोगिकेवली गुणस्थान तक के गुणस्थानों का अन्वेषण-स्थान है अर्थात् त्रसकाय में सभी चौदह गुणस्थान पाये जाते हैं 24 ऊपर काय के अर्थ को स्पष्ट करते हुए प्रश्न उठाया गया कि 'योग' से क्या तात्पर्य है ? इस प्रश्न के जवाब में कहा गया है कि आत्म-प्रदेशों के परिस्पन्द को अर्थात् आत्म-प्रदेशों के संकोच और विस्तार को 'योग' कहते हैं 25 योग के तीन मुख्य भेद हैं- मनोयोग, वचनयोग और काययोग । 'भावमन' की उत्पत्ति के लिए आत्म-प्रदेशों में जो परिस्पन्द होता है उसे 'मनोयोग' कहते हैं। 26 मनोयोग चार प्रकार का है - सत्यमनोयोग, असत्यमनोयोग, सत्यअसत्य मनोयोग और अ- सत्यअसत्य मनोयोग । 'सत्यमन' के निमित्त से होनेवाले आत्म-प्रदेशों के परिस्पन्द को 'सत्यमनोयोग' कहते हैं। 'सत्यमन' से तात्पर्य है जहाँ जिस प्रकार की वस्तु विद्यमान है वहाँ उसी प्रकार से प्रवृत्ति करनेवाला 'मन', और इसके विपरीत मन 'असत्यमन' । असत्यमन के द्वारा होनेवाले आत्म-प्रदेशों के परिस्पन्द को 'असत्यमनोयोग' कहते हैं । सत्य तथा असत्य इन दोनों मनो के संयोग से उत्पन्न होनेवाले आत्म-प्रदेशों के परिस्पन्द को 'सत्यअसत्यमनोयोग' और अनुभयमन के निमित्त से होनेवाले आत्म- प्रदेशों के परिस्पन्द को 'अ-सत्यअसत्यमनोयोग' कहते हैं । 7 इन चार मनोयोगों में से 'सत्यमनोयोग' और 'असत्यअसत्यमनोयोग' मिथ्यादृष्टि से सयोगिकेवली तक के गुणस्थानों के अन्वेषणस्थान हैं और 'असत्यमनोयोग' तथा 'सत्य असत्यमनोयोग' मिथ्यादृष्टि से क्षीणकषाय- वीतराग-छद्मस्थ तक के गुणस्थानों के अन्वेषण - स्थान हैं। 28 वचन की उत्पत्ति के लिए होनेवाले आत्म- प्रदेशों के परिस्पन्द को 'वचनयोग' कहते हैं । वचनयोग के चार प्रकार हैं- सत्यवचनयोग, असत्यवचनयोग, सत्यअसत्यवचनयोग और असत्यअसत्यवचनयोग। जिस वचनयोग में 'सत्यमन' निमित्त हो उसे 'सत्यवचनयोग' कहते हैं, जिसमें असत्यमन निमित्त हो उसे 'असत्यवचनयोग', जिसमें उभयमन निमित्त हो उसे 'सत्यअसत्यवचनयोग' और जिसमें अनुभयमन निमित्त हो उसे 'अ-सत्यअसत्यवचनयोग' कहते हैं। सत्य तथा अ-सत्यअसत्य वचनयोग प्रथम तेरह गुणस्थानों के अन्वेषण स्थान हैं और अन्य दो वचनयोग प्रथम बारह गुणस्थानों के अन्वेषण - स्थान | 29 काय की क्रिया की उत्पत्ति के लिए जो प्रयत्न विशेष होता है उसे 'काययोग' कहते हैं। काययोग सात प्रकार का है - औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिक मिश्र, आहारक, आहारक मिश्र और कार्मण काययोग । औदारिक शरीर के निमित्त से होनेवाले आत्मप्रदेशों के
SR No.524762
Book TitleJain Vidya 14 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1994
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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