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________________ जैनविद्या 14-15 61 ये सभी ज्ञान गुणस्थानों के गवेषण-स्थान हैं। अतः इन्हें 'ज्ञानमार्गणास्थान' कहा जाता है। इन पाँच ज्ञानों में से मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान में असंयतसम्यग्दृष्टि से क्षीणकषायवीतराग-छद्मस्थ तक के गुणस्थान होते हैं। मनःपर्ययज्ञान में अप्रमत्तसंयत से क्षीणकषायवीतराग-छद्मस्थ तक के गुणस्थान होते हैं और केवलज्ञान में सयोगिकेवली तथा अयोगिकेवली गुणस्थान जिसके द्वारा देखा जाय अर्थात् अवलोकन किया जाय उसे 'दर्शन' कहते हैं, अथवा सामान्य-विशेषात्मक पदार्थ के विशेष अंश को ग्रहण नहीं करके केवल सामान्य के अर्थात् स्वरूपमात्र के ग्रहण करने को 'दर्शन' कहते हैं । दर्शन के चार प्रकार हैं - चक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, अचक्षुदर्शन और केवलदर्शन। चक्षु के द्वारा सामान्य के ग्रहण करने को 'चक्षुदर्शन' कहते हैं और चक्षु के अतिरिक्त इन्द्रियों और मन के द्वारा जो प्रतिभास होता है उसे 'अचक्षुदर्शन'। समस्त मूर्त पदार्थों को प्रत्यक्षरूप से देखने को 'अवधिदर्शन' कहते हैं और समस्त पदार्थों के दर्शन को 'केवलदर्शन'। इन दर्शनों में गुणस्थानों के अन्वेषण को 'दर्शनमार्गणा' कहते हैं। चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन प्रथम बारह गुणस्थानों के अन्वेषण-स्थान हैं। अवधिदर्शन असंयत सम्यग्दृष्टि से क्षीणकषाय-वीतराग-छद्मस्थ तक के गुणस्थानों का अन्वेषण-स्थान है और केवलदर्शन सयोगिकेवली तथा अयोगिकेवली गुणस्थानों का अन्वेषण-स्थान है। ध्यान देने की बात है कि ऊपर जीव के अनन्त चतुष्ट्य में से ज्ञान और दर्शन की चर्चा की गई है, सुख और शक्ति की चर्चा नहीं की गई; क्योंकि ज्ञान और दर्शन को ही मार्गणास्थान कहा गया है, सुख और शक्ति को नहीं। और यहाँ मार्गणास्थान की ही चर्चा की जा रही है। दूसरे, ऊपर यह कहा गया है कि जीव का कर्म-पुद्गल के साथ संयोग होने से ज्ञान आदि में न्यूनता आ जाती है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि वह न्यूनता सदैव बनी रहती है। शक्ति, ज्ञान आदि की अनन्तता को 'संयम' तथा 'सम्यक्त्व' के द्वारा पुनः प्राप्त किया जा सकता है। प्रश्न उठता है कि 'संयम' से क्या तात्पर्य है ? प्रत्युत्तर में कहा गया है कि पाँच व्रतों का धारण करना; पाँच समितियों का पालन करना; चार कषायों का निग्रह करना; मन, वचन और काय रूप तीन दण्डों का त्याग करना और पाँच इन्द्रियों के विषयों को जीतना 'संयम' है।" अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, ये पाँच व्रत हैं। ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेप और उत्सर्ग, ये पाँच समितियाँ हैं । क्रोध, मान, माया और लोभ, ये चार कषाय हैं। स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र, ये पाँच इन्द्रियाँ हैं। ___ 'संयम' के पाँच प्रकार हैं - सामायिकशुद्धिसंयम, छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयम, परिहारशुद्धिसंयम, सूक्ष्मसांपरायशुद्धिसंयम और यथाख्यातविहारशुद्धिसंयम। संयम के सभी रूपों को एक-साथ अभेदरूप से धारण करने को 'सामायिकशुद्धिसंयम' कहते हैं और उनको भेदरूप से अर्थात् अलग-अलग धारण करने को 'छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयम'। मुख्य रूप से अहिंसा व्रत को धारणा करना 'परिहारशुद्धिसंयम' कहलाता है अर्थात् सभी व्यापारों में प्राणियों की हिंसा का
SR No.524762
Book TitleJain Vidya 14 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1994
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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