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________________ 48.. जैनविद्या 14-15 से ज्ञात होता है कि आचार्य वीरसेन अपने समय में ही किस कोटि के ज्ञानी और संयमी समझे जाते थे। वे प्राचीन ग्रन्थों एवं अन्य विषयों की पुस्तकें पढ़ने के इतने अधिक प्रेमी थे कि वे अपने से पूर्व के समस्त पुस्तक-पाठकों से आगे बढ़ गये थे। उनके पुस्तक-प्रेम और उससे अर्जित ज्ञान का परिचय उनके द्वारा रचित टीकाओं में विविध ग्रंथों से उद्धृत उद्धरणों से सहज ही हो जाता है। आचार्य वीरसेन का ज्ञान-केन्द्र प्राचीन काल में अध्ययन-अध्यापन या शिक्षा प्रदान करने की दृष्टि से विभिन्न स्थानों पर ज्ञानकेन्द्र या ज्ञानपीठ की स्थापना की जाती थी जिनमें धार्मिक एवं सन्तोषी वृत्तिवाले संयमी जैन गृहस्थ शिक्षा देते थे। अधिकांश बसति (जिन मन्दिर) से सम्बद्ध पाठशाला में भी यह कार्य किया जाता था जिनमें प्रायः गृहसेवी या गृहत्यागी ब्रह्मचारी, ब्रह्मचारिणियां आदि धार्मिक शिक्ष ग्रहण करते थे। कुछ पाठशालाओं का स्वरूप अधिक विकसित होता था जिनमें धार्मिक सिद्धान्त ग्रंथों की उच्च शिक्षा की व्यवस्था के साथ ग्रंथ-संग्रह एवं ग्रंथ-लेखन की भी व्यवस्था रहर्त थी। ऐसी संस्था ज्ञान-केन्द्र या ज्ञानपीठ के रूप में ख्यात होती थी। उन ज्ञानकेन्द्रों में यद्यरि स्थायीरूप से आचार्य आदि की नियुक्ति रहती थी जो नियमितरूप से शिक्षा प्रदान करते थे, साथ ही क्षुल्लक, ऐलक एवं निग्रंथ साधु भी जब अपने विहार-काल में विशेषत: चातुर्मास समर में वहाँ निवास करते थे तो वे भी इस शिक्षण में अपना योगदान करते थे, जिसका लाभ उस क्षेत्र की धर्मानुरागी जनता को भी मिलता था। जो विशाल ज्ञानपीठ होते थे उनका नियंत्रण एवं संचालन दिग्गज निग्रंथाचार्यों द्वारा ही होता था और वहाँ वे अपने गुरुबन्धुओं, शिष्यों-प्रशिष्यों के वृहत् परिवार के साथ ज्ञानाराधन एवं साधना (तपश्चर्या) करते थे। अपनी चर्या के नियम के अनुसार वे निष्परिग्रही/तपस्वी, दिगम्बर साधु (मुनि जन) समय-समय पर यत्र-तत्र अल्पाधिक विहार भी करते थे किन्तु उनका स्थायी निवास प्रायः वहीं होता था जहां उनका साधना-स्थल या ध्यानकेन्द्र या ज्ञानकेन्द्र (ज्ञानपीठ) था। वे ज्ञानकेन्द्र मात्र साधना या तपश्चर्या के केन्द्र नहीं थे, अपितु विद्यापीठ के रूप में विभिन्न लौकिक विषयों की शिक्षा का भी पर्याप्त प्रबन्ध वहां था। धार्मिक एवं दार्शनिक तत्वानुचिन्तन के साथ गणित, ज्योतिष, नीतिशास्त्र, आचारशास्त्र, राजनीति, आयुर्वेद आदि विषयों के उच्चस्तरीय शिक्षण की पर्याप्त व्यवस्था वहां की विशेषता थी। ज्ञानपिपासु साधुओं को तो वहां उनके अध्ययन, मनन-चिन्तन एवं अनुशीलन की निर्बाध व्यवस्था थी ही, ज्ञानार्थी सामान्यजन जिनमें राजपरिवार या राजघरानों से सम्बन्धित राजकुमार एवं अन्य व्यक्तियों के लिए भी उन ज्ञानकेन्द्रों (विद्यापीठों) के द्वार खुले हुए थे। सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत उन केन्द्रों में निःशुल्क आवास, भोजन एवं चिकित्सा की समुचित व्यवस्था थी जिससे ज्ञानार्थी छात्र न केवल इन समस्त व्यवस्थाओं की चिन्ता से मुक्त रहे, अपितु उनमें उच्च-हीनता का भेद-भाव नहीं पनप सके क्योंकि समानता का आदर्श वहाँ की प्रथम अनिवार्यता थी। ऐसे ज्ञानकेन्द्रों में एक विशाल और प्रमुख ज्ञानकेन्द्र वाटग्राम का था जो राष्ट्रकूट काल (लगभग ढाई सौ वर्ष) में राष्ट्रकूट साम्राज्य के ज्ञानपीठों (विद्यापीठों) में विशालतम एवं
SR No.524762
Book TitleJain Vidya 14 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1994
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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