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________________ जैनविद्या 14-15 सद्भाव सम्बन्धी शंका दूर हो गई थी तो उसमें कोई आश्चर्य नहीं है क्योंकि इस समय भी उसे पढ़कर विद्वानों को यह आश्चर्य हुए बिना नहीं रहता कि एक व्यक्ति को कितने विषयों का कितना अधिक ज्ञान था। आचार्य वीरसेन के प्रज्ञा श्रमण होने का संकेत जय धवला में प्रतिपादित प्रशस्ति में मिलता है, जो निम्न प्रकार है - यस्य नैसर्गिकी प्रज्ञां दृष्ट्वा सर्वार्थगामिनीम् । जाता सर्वज्ञसद्भावे निरारेका मनीषिणः॥ यं प्राहुः प्रस्फुरबोध दीधितिप्रसरोदयः। श्रुतकेवलिनं प्राज्ञाः प्रज्ञाश्रमणसत्तमम् ॥ निःसन्देह वे प्रथम चक्रवर्ती भरत की भांति प्रथम सिद्धान्त चक्रवर्ती थे। उनके बाद से ही सिद्धान्त ग्रंथों के ज्ञाताओं को यह पद दिया जाने लगा था। आदिपुराण में उनके गुणों और विशेषताओं का बखान करते हुए निम्न प्रकार से उनका स्तुतिगान किया गया है जो अद्वितीय है - श्री वीरसेन इत्यात्त भट्टारकपृथुप्रथः। स नः पुनातु पूतात्मा कविवृन्दारको मुनिः ॥ लोकवित्वं कवित्वं च स्थितं भट्टारके द्वयम् । वाग्मिता वाग्मिनो यस्य वाचा वाचस्पतेरपि॥ सिद्धान्तोपनिबन्धानां विधातुर्मद्गुरोश्चिरम् । मन्मनःसरसि स्थेयान् मृदुपादकुशेशयम् ॥ 1.55-57॥ अर्थात् वे अत्यन्त प्रसिद्ध वीरसेन भट्टारक हमें पवित्र करें, जिनकी आत्मा स्वयं पवित्र है, जो कवियों में श्रेष्ठ हैं, जिस भट्टारक में लोकव्यवहार विज्ञता एवं कवित्व दोनों विद्यमान हैं (लोकव्यवहार एवं काव्यस्वरूप के महान ज्ञाता हैं), जिनकी वाणी के समक्ष औरों की तो बात ही क्या, स्वयं सुरगुरु बृहस्पति की वाणी भी सीमित/अल्प प्रतीत होती है, सिद्धान्त ग्रंथ षट्खण्डागम के ऊपर उपनिबन्ध-निबन्धात्मक टीका की रचना करने के कारण जिनका ग्रंथ सर्वत्र प्रसारित है। धवला की प्रशस्ति गाथा 5 के अनुसार आचार्य वीरसेन सिद्धान्त, छन्द, ज्योतिष, व्याकरण और प्रमाणशास्त्र में निपुण थे - "सिद्धन्तछंदजोइसवायरण पमाण सत्थणिवुणेण .....।" आचार्य वीरसेन के आगम-विषयक ज्ञान और बुद्धिचातुर्य को देखकर विद्वान उन्हें श्रुतकेवली और प्रज्ञाश्रमणों में श्रेष्ठ तक कहते थे। ग्यारह अंग और चौदह पूर्व का पाठी होने पर श्रुतावतरण और वीर्यान्तराय के प्रकृष्ट क्षयोपशन से जो असाधारण प्रज्ञा-शक्ति प्राप्त हो जाती है, जिसके कारण द्वादशांग के विषयों का नि:संशय कथन किया जा सकता है उसे प्रज्ञाश्रमण ऋद्धि कहते हैं और उसके धारक प्रज्ञाश्रमण कहलाते हैं। जयधवला में प्रतिपादित उपर्युक्त प्रशस्ति में आचार्य वीरसेन को ऐसे ही प्रज्ञाश्रमणों में श्रेष्ठ बतलाया गया है। श्री वीरसेन स्वामी की इस प्रज्ञाशक्ति के दर्शन उनकी टीकाओं में पदे-पदे होते हैं। प्रशस्तिकार के उपर्युक्त उल्लेखों
SR No.524762
Book TitleJain Vidya 14 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1994
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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