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________________ जैनविद्या 14-15 ___49 प्रमुख था। इतिहास-मनीषी डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन ने इस विषय पर विस्तृत प्रकाश डाला है (शोधादर्श-14, जुलाई 1991)। वे लिखते हैं कि वराड प्रदेश (बरार) में तत्कालीन नासिक देश (प्रान्त) के बाटनगर नामक विषय (जिला) का मुख्य स्थान यह वटग्राम या वाटग्रामपुर या वाटनगर था, जिसकी पहचान वर्तमान महाराष्ट्र राज्य के नासिक जिला के डिंडोरी तालुका में स्थित वानी नाम ग्राम से की गई है। नासिक नगर से पांच मील उत्तर की ओर सतमाला अपरनाम चन्दोर नाम की पहाड़ी-माला है जिसकी एक पहाड़ी पर चाम्भार-लेण नाम से प्रसिद्ध एक प्राचीन उत्खनित जैन गुफा-श्रेणी है। यह अनुमान किया जाता है कि प्राचीन काल में ये गुफाएं जैन मुनियों के निवास के उपयोग में आती थीं। इस पहाड़ी के उस पार ही वानी नाम का गांव बसा हुआ है जहाँ कि उक्त काल में उपर्युक्त वाटनगर बसा हुआ था। बहुसंख्यक गुफाओं के इस सिलसिले को देखकर यह सहज ही अनुमान होता है कि यहाँ किसी समय एक महान जैन संस्थान रहा होगा। वस्तुतः राष्ट्रकूट युग में रहा ही था। उस समय इस संस्थान के केन्द्रीय भाग में अष्टम तीर्थंकर श्री चन्द्रप्रभ का एक मनोरम चैत्यालय भी स्थित था जिसके सम्बन्ध में उस काल में भी यह किंवदन्ती प्रचलित थी कि वह आणतेन्द्र द्वारा निर्मापित है। यह पुनीत चैत्य ही संभवतया संस्थान के कुलपति का आवास-स्थल था। वाटनगर के इस ज्ञानपीठ की स्थापना का श्रेय संभवतया पंचस्तूप निकाय (जो कालान्तर में सेनसंघ के नाम से प्रसिद्ध हुआ) के दिगम्बराचार्यों को ही है। ईस्वी सन् के प्रारंभ के आसपास हस्तिनापुर, मथुरा अथवा किसी अन्य स्थान के प्राचीन पाँच जैन स्तूपों से सम्बन्धित होने के कारण मुनियों की यह शाखा पंचस्तूपान्वय कहलाई। 5वीं शती ई. में इसी स्तूपान्वय के एक प्रसिद्ध आचार्य गृहनन्दि ने वाराणसी से बंगाल देशस्थ पहाड़पुर की ओर विहार किया था जहाँ उनके शिष्य-प्रशिष्यों ने बटगोहाली का प्रसिद्ध संस्थान स्थापित किया था। 6ठी शती में इसी अन्वय के एक आचार्य वृषभनन्दि ने दक्षिणापथ में विहार किया। इन्हीं वृषभनन्दि की शिष्यपरम्परा में 7वीं शती के उत्तरार्ध में संभवतया श्रीसेन नाम के एक आचार्य हुए और संभवतया इन श्रीसेन के शिष्य चन्द्रसेनाचार्य थे जिन्होंने 8वीं शती ई. के प्रथम पाद के लगभग राष्ट्रकूटों के सम्भावित उत्कर्ष को लक्ष्य करके वाटनगर की बस्ती के बाहर स्थित चन्दोर पर्वतमाला की इन चाम्भार लेणों में उपर्युक्त ज्ञानपीठ की स्थापना की थी। सम्पूर्ण नासिक्य क्षेत्र तीर्थंकर चन्द्रप्रभ से सम्बन्धित तीर्थक्षेत्र आणतेन्द्र निर्मित धवल भवन विद्यमान था। गजपन्था और मांगी-तुंगी के प्रसिद्ध प्राचीन जैन तीर्थ भी निकट थे, एलाउर या ऐलपुर (एलौरा) का शैव संस्थान और कन्हेरी का बौद्ध संस्थान भी दूर नहीं थे। राष्ट्रकूटों की प्रधान सैनिक छावनी भी कुछ हटकर उसी प्रदेश के मयूरखंडी नामक दुर्ग में थी और उनकी तत्कालीन राजधानी सूलुभंजन (सोरभंज) भी नातिदूर थी। इस प्रकार यह स्थान निर्जन और प्राकृतिक भी था, प्राचीन पवित्र परम्पराओं से युक्त था, राजधानी आदि के झमेले से दूर भी, किन्तु शान्ति और सुरक्षा की दृष्टि से उसके प्रभाव क्षेत्र में ही था। अच्छी बस्ती की निकटता से प्राप्त सुविधाओं का भी लाभ था और उसके शोरगुल से असम्पृक्त भी रह सकता था। एक महत्वपूर्ण ज्ञानकेन्द्र के लिए यह आदर्श स्थिति थी। चन्द्रसेनाचार्य के पश्चात् उनके प्रधान शिष्य आर्यनन्दि ने संस्थान को विकसित किया। संभवतया इन दोनों ही गुरु-शिष्यों की यह आकांक्षा
SR No.524762
Book TitleJain Vidya 14 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1994
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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