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________________ जैनविद्या 14-15 नवम्बर 1993-अप्रेल 1994 11 भट्टारक वीरसेन और उनका समय - श्री रमाकान्त जैन जितात्मपरलोकस्य कवीनां चक्रवर्तिनः। वीरसेनगुरोः कीर्तिरकलङ्कावभासते अर्थात् जिन्होंने स्वपक्ष और परपक्ष के लोगों को जीत लिया है तथा जो कवियों के चक्रवर्ती हैं, ऐसे वीरसेन गुरु की निर्मल कीर्ति प्रकाशमान हो रही है। • वीरसेनाख्य मोक्षगे चारूगुणानर्घ्य रत्नसिंधुगिरि सततम् । साखरात्मध्यानगेमारमदाम्भोद पवनगिरिगव्हरयितु ।। अर्थात् सदैव रत्नाकर की तरह गम्भीर (गहरे) और गिरि की भांति उत्तुंग (ऊँचे), चारुगुणों से युक्त अनर्घ्य पदरूपी रत्न मोक्ष-मार्ग के ज्ञाता वीरसेन नामक आचार्य काम-मद-रूपी बादल को सारस्वरूप (भारी) आत्मध्यान (आत्मा का ध्यान अथवा स्वरूप) बतानेवाली पवन से गिरिचोटी पर ही विच्छिन्न करनेवाले हैं। श्री वीरसेन इत्याप्त-भट्टारकपृथुप्रथः। स नः पुनातु पूतात्मा कविवृन्दारका मुनिः । लोकवित्वं कवित्वं च स्थितं भट्टारकेद्वयम्।वाङ्गमिताऽवाङ्गमिता यस्य वाचा वाचस्पतेरपि॥ सिद्धान्तोपनिबन्धानां विद्यातुर्मद्गुरोश्चिरम्। मन्मनःसरसि स्थेयान् मृदुपादकुशेशयम् । धवलां भारती तस्य कीर्ति च विधुनिर्मलाम् । धवलीकृतनिश्शेष भुवनां नन्नमीम्यहम्॥
SR No.524762
Book TitleJain Vidya 14 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1994
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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