SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 10 मंगलं पुण्यं मंगलस्यैकार्थ उच्यते, मंगलं पुण्यं पूतं पवित्रं प्रशस्तं शिवं शुभं कल्याणं भद्रं सौख्यमित्येवमादीनि मंगलपर्यायवचनानि । X मंगलस्य निरुक्तिरुच्यते मलं गालयति विनाशयति घातयति दहति हन्ति विशोधयति विध्वंसयतीति मंगलम् । X x - x अथवा मंगं सुखं, तल्लाति आदत्त इति वा मंगलम् । X - X X अथवा मङ्गति गच्छति कर्ता कार्यसिद्धिमनेनास्मिन् वेति मङ्गलम् । षट्खण्डागम (पु. 1, पृ. 33 ) x X X X X मंगल के एकार्थवाचक नाम कहते हैं - मंगल, पुण्य, पूत, पवित्र, प्रशस्त, शिव, शुभ, कल्याण, भद्र और सौख्य इत्यादि मंगल के पयार्यवाची नाम हैं। X x X X - (अब) मंगल की निरुक्ति (व्युत्पत्तिजन्य अर्थ ) कहते हैं - जो मल का गालन करे, विनाश करे, घात करे, दहन करे, नाश करे, शोधन करे, विध्वंस करे उसे मंगल कहते हैं । X जैनविद्या 14-15 x x - मंग शब्द सुखवाची है, उसे जो लावे, प्राप्त करे उसे मंगल कहते हैं । X X अथवा कर्ता (किसी उद्दिष्ट कार्य को करनेवाला) जिसके द्वारा या जिसके किये जाने पर कार्य की सिद्धि को प्राप्त होता है उसे भी मंगल कहते हैं ।
SR No.524762
Book TitleJain Vidya 14 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1994
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy