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________________ 12 जैनविद्या 14-15 अर्थात् पृथ्वीतल पर प्रसिद्ध (या आप्त अर्थात् सकल मोह, राग, द्वेष आदि दोषों से रहित, सकल पदार्थों के ज्ञाता और परम हितोपदेशी) भट्टारक (साधु) जिनकी आत्मा पवित्र है, जो कवियों में श्रेष्ठ और मुनि हैं (या वादिवृन्दारक मुनि अर्थात् शास्त्रार्थ करनेवाले मुनि हैं), जिनके भट्टारकरूप में लोक-विज्ञता और कवित्वशक्ति विद्यमान है और जिनकी वाणी वाचस्पति की वाणी को भी अल्पीकृत (सीमित या मात) करती है, ऐसे वे श्री वीरसेन स्वामी हमारी रक्षा करें। मेरे मनरूपी सरोवर में सिद्धान्त (धवला आदि) पर उपनिबन्ध रचनेवाले मेरे गुरु (श्री वीरसेन) के कोमल पाद-पंकज चिरकाल तक विराजमान रहें। उनकी धवला टीका, साहित्य और चन्द्रमा की तरह निर्मल (पवित्र) कीर्ति, जिसने सम्पूर्ण भुवन को धवल (शुभ्र) बना दिया है, को मैं नमस्कार करता हूँ। ऊपर उल्लिखित इन श्लोकों में जिन वीरसेन स्वामी का सादर गुणगान उनके समवर्ती आचार्य जिनसेन सूरि पुन्नाट और आचार्य विद्यानन्दि तथा उनके शिष्य आचार्य जिनसेन द्वारा किया गया है, वह आचार्य धरसेन की प्रेरणा से पुष्पदन्त और भूतबलि मुनिद्वय द्वारा उनके लिपिबद्ध किये गये 'षट्खण्डागम' सिद्धान्त ग्रन्थ, जो तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर की उनके गणधर इन्द्रभूति गौतम द्वारा बारह अंगों में गूंथी गई वाणी, जो मौखिक श्रुतपरम्परा से सैकड़ों वर्षों से चली आ रही थी, पर आधारित बताया जाता है, पर प्राकृत-संस्कृत-मिश्रित भाषा में 72,000 प्रमाण श्लोकों में 'धवला' नामक टीका तथा आचार्य गुणधर द्वारा गाथा सूत्रों में निबद्ध एक अन्य सिद्धान्त ग्रन्थ 'कषायपाहुड़' (कषायप्राभृत), जिस पर आर्यमंक्षु और नागहस्ति के शिष्यत्व में आचार्य यतिवृषभ द्वारा 'चूर्णि सूत्र' और उच्चारणाचार्य एवं वप्पदेवाचार्य द्वारा उच्चारणावृत्तियों' की रचना की गयी थी, पर 'जयधवला' टीका के उक्त मणि-प्रवाल भाषा शैली में प्रथम 20,000 श्लोकों के रचयिता प्रकाण्ड विद्वान आचार्य वीरसेन थे। वीरसेन के शिष्य आचार्य जिनसेन ने अपने 'आदिपुराण' में अपने गुरु का सादर स्मरण करते हुए उन्हें 'भट्टारक' विशेषण से अभिहित किया ही है, स्वयं वीरसेन ने भी अपनी 'धवला' की पुष्पिका (प्रशस्ति) में 'भट्टारएण टीका लिहिएसा वीरसेणेण' लिखकर अपने को भट्टारक सूचित किया है। यद्यपि जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष के अनुसार 'भट्टारक' शब्द सामान्यतः अर्हन्त, सिद्ध और साधु के लिए प्रयुक्त होता है, किन्तु चूंकि कालान्तर में विशेषकर मध्ययुग से यह शब्द मठाधीश जैन मुनि-आचार्यों का पर्यायवाची बन गया, यह आभास होता है कि वीरसेन तथा उनके शिष्य द्वारा उनके लिए प्रयुक्त भट्टारक शब्द कदाचित् उन्हें मात्र 'साधु' सूचित करना नहीं है, अपितु उनका तथाकथित 'भट्टारक' पदवी से अलंकृत होना है। अर्थात् उनके समय तक भट्टारक परम्परा प्रारम्भ हो गई प्रतीत होती है। उसी पुष्पिका में वीरसेन ने अपने को "सिद्धंतछंद जो इस वायरण पमाणसत्थणिवुणेण" अर्थात् सिद्धान्त, छन्द, ज्योतिष, व्याकरण और प्रमाणशास्त्र में निपुण भी सूचित किया है। 'धवला' की इस प्रशस्ति से विदित होता है कि इसके लेखक वीरसेन भट्टारक ने सिद्धान्त ग्रन्थों का अध्ययन किन्हीं 'एलाचार्य' से किया था और यह कि वह पंचस्तूपान्वयी शाखा के मुनि 'आर्यनन्दि' के शिष्य तथा 'चन्द्रसेन' के प्रशिष्य थे। प्रशस्ति के अनुसार - इस 'धवला
SR No.524762
Book TitleJain Vidya 14 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1994
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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