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________________ सम्पादकीय जैनविद्या संस्थान श्रीमहावीरजी की शोध-पत्रिका 'जनविद्या' का यह तेरहवां अंक 'प्राचार्य समितपति-विशेषांक' पाठकों व अध्ययनकर्ताओं के समक्ष प्रस्तुत करते हुए हमें अत्यन्त हर्ष है। इसके पूर्व-1. स्वयंभू विशेषांक, 2. व 3. पुष्पदन्त विशेषांक (खण्ड 1-2), 4. महाकवि धनपाल विशेषांक, 5-6. वीर विशेषांक, 7. मुनि नयनन्दि विशेषांक, 8. कनकामर विशेषांक, 9. योगीन्दु विशेषांक, 10-11. प्राचार्य कुन्दकुन्द विशेषांक, 12. पूज्यपाद विशेषांक, ये बारह अंक प्रकाशित हो चुके हैं। प्रारम्भिक 9 अंकों में अपभ्रंश भाषा के ग्रन्थों व साहित्य का विवेचन किया गया है । इस तेरहवें अंक में प्राचार्य अमितगति के बारे में प्रकाश डाला गया है । जैन साहित्य में अमितगति नाम के दो प्राचार्यों का उल्लेख मिलता है। यद्यपि अमितगति द्वितीय ही इनमें अधिक प्रसिद्ध हैं और बहुश्रुत विद्वान माने . जाते हैं जिन्होंने काव्य, न्याय, व्याकरण, आचार आदि विषयों पर अनेक ग्रन्थों की रचना की है, यथा-सुभाषितरत्नसंदोह, धर्मपरीक्षा, उपासकाचार-श्रावकाचार, आराधना, भावनाद्वात्रिंशतिका, पंच-संग्रह (संस्कृत), पंच-संग्रह (प्राकृत), सामायिक पाठ आदि । ये माथुर संघ के प्राचार्य थे, इनकी गुरु-परम्परा में आचार्य देवसेन थे जिनके शिष्य अमितगति प्रथम और अमितमति प्रथम के शिष्य माधवसेन तथा उनके शिष्य प्रस्तुत अंक के नायक अमितगति द्वितीय थे। आचार्यों को ही तीर्थंकर महावीर की प्राचार्य-परम्परा में सारस्वताचार्य स्वीकृत किया है। सारस्वताचार्य उन्हें कहते हैं जिन्होंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य तथा पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों की टीकायें भाष्य एवं कृतियां भी रची हैं। इसके विपरीत श्रुतघराचार्य युग-संस्थापक एवं युगान्तकारी प्राचार्य हुए हैं जिन्होंने श्रुतज्ञान के क्षीण होने पर नष्ट होती हुई श्रुत-परम्परा को मूर्तरूप देने का मौलिक कार्य किया है । श्रुतघराचार्य अंगों या पूर्वो के एकदेश ज्ञाता थे । इन प्राचार्यों में गुणधर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतबलि, आर्यमंक्षु, नागहस्ति, यतिवृषभ, कुन्दकुन्द, शिवार्य, कार्तिकेय, उमास्वामी आदि की विशेषतौर पर गणना की जाती है । श्रुतघराचार्यों ने दृष्टिप्रवाद सम्बन्धी रचनायें करके विशेषकर कर्म-साहित्य, सिद्धान्त-साहित्य व अध्यात्मवाद को 'श्रुतघराचार्यों द्वारा रचित साहित्य का आधार लेते हुए' विभिन्न विषयक वाङमय की रचना की है। अतः यह स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित साहित्य की पृष्ठभूमि अधिक विशाल और विस्तृत है। सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामी समन्तभद्राचार्य का स्थान स्वीकार किया जाता है । इन्हीं प्राचार्यों में सिद्धसेन, पूज्यपाद-देवनन्दि, जोइन्दु, विमलसूरि, आर्यनन्दि, मानतुंग, रविषेण, अकलंक,
SR No.524761
Book TitleJain Vidya 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1993
Total Pages102
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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