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________________ जनविद्या-43] अप्रेल-1993 मिथ्यात्व खण्डन 'धर्मपरीक्षा' की आधारभूमि -डॉ. पुष्पलता जैन "धर्मपरीक्षा' एक व्यंग्य-प्रधान काव्य है जिसमें प्राचार्यों ने एकान्तवादी कथाओं और विचारों का खण्डन जैन सिद्धान्त के परिप्रेक्ष्य में बड़े ही सुन्दर ढंग से किया है। उन्होंने अनेकांतवादी अहिंसक परम्परा पर खड़े होकर चादी के रूप में इतनी सुन्दर अहम् भूमिका निभाई है कि पाठक को कहीं भी सम्प्रदायवाद नजर नहीं आता बल्कि तवसमेत कमियाँ प्रतिवादी के सिद्धान्तों में देखकर वह आश्वस्त हो जाता है यह सोचकर कि कवि भारतीय संस्कृति का पोषक है। अनेक प्राचार्यों ने 'धर्मपरीक्षा के नाम से विविध ग्रन्थ लिखे हैं। उनमें प्राचीनतम 'धर्मपरीक्षा' है प्राचार्य जयराम की जो आज अनुपलब्ध है। इसके बाद हरिषेण की धम्मपरिकबा (वि. सं. 1044), अमितगति की धर्मपरीक्षा (वि. सं. 1070), वृत्तविलास की धर्मपरीक्षा (ई. 1160), सौभाग्यसार की धर्मपरीक्षा (सं. 1557), पद्मसागरगणि की धर्मपरीक्षा (वि. सं. 1675) आदि भगभग 15 और धर्मपरीक्षा नाम के काव्य प्रन्थ मिलते हैं। इनमें सर्वाधिक विश्रुत ग्रन्थ है अमितमति की धर्मपरीक्षा जो कवि की कुशल प्रतिभा का प्रतिफल है। ये सारी धर्मपरीक्षाएं मध्यकाल की देन हैं। हम जानते हैं, लगभग 10वीं शताब्दी तक वैदिक आख्यानों का अच्छा खासा विकास हो चुका था । प्राकृत कथाएं भी उसी परिमाण में जैनदर्शन को स्पष्ट करने की पृष्ठभूमि में तैयार कर ली गई थीं। इस समय तक वादविवाद की शैली भी विकसित हो चुकी थी और उसमें जैनाचार्यों ने अपना एक महत्वपूर्ण स्थान
SR No.524761
Book TitleJain Vidya 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1993
Total Pages102
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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