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________________ 28 ] [ जैनविद्या-13 कुम्भकार की तरह सब को प्रत्यक्ष नहीं होता है। दूसरा यदि सशरीर ईश्वर को माना जाए तब वह सब पदार्थों को उत्पन्न कैसे कर सकता है, क्योंकि सशरीरी द्वारा सब पदार्थों की उत्पत्ति सम्भव नहीं, जैसे कुम्भकार सब पदार्थों को उत्पन्न नहीं कर सकता है । इस प्रकार न तो ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध होता हैं और न ही उसका कर्तापना। तब ईश्वर को सर्वज्ञ कहना अर्थहीन है। बुद्ध भी सर्वज्ञ नहीं,16 क्योंकि उसके द्वारा मानी गई तत्व-व्यवस्था को देखने पर भली-भांति ज्ञात होता है कि परम्परा में विरुद्ध अर्थ का प्रतिपादन होता है और विरुद्ध अर्थ के प्रतिपादन होने के कारण वे सर्वज्ञ कैसे हो सकते हैं ? आचार्य प्रश्न करते हैं कि आपने शून्यत्व को माना है तब यह बतलायें कि सर्व-शून्यता की सिद्धि किस प्रमाण से कहते हैं ? अथवा बिना किसी प्रमाण के ही स्वीकार करते हैं ? यदि किसी प्रमाण से सर्व-शून्यता की सिद्धि करते हैं तब तो सर्व-शून्यता का खण्डन हो जाता है, क्योंकि आपने प्रमाण को स्वीकार कर लिया है। दूसरी ओर यदि बिना प्रमाण के ही सर्व-शून्यता को स्वीकार कर रहे हैं तब तो सभी लोगों का मनचाहा तत्व सिद्ध हो जायेगा और सर्व-शून्यता का निषेध हो जायेगा। दूसरा सर्वथा क्षणिकवाद माना जाये तब वह सब व्यवहार असम्भव हो जायेगा। . कपिल के सर्वज्ञता का निराकरण करते हुए आचार्य का कहना है कि जो ज्ञान को जड़ प्रकृति का धर्म मानता है और पुरुष को निर्गुण, निष्क्रिय तथा प्रयोजनरहित मानता है वह सर्वज्ञ कैसे हो सकता है, क्योंकि ज्ञान चेतन आत्मा का धर्म है और पुरुष गुणवान तथा सक्रिय है। उपर्युक्त तर्कों से यह सिद्ध होता है कि वीतरागी के अतिरिक्त कोई सर्वज्ञ नहीं। 1. भारतीय दार्शनिक समस्याएं, पृ. 2, 9, 10 । 2. अष्टसहस्री, पृ. 50। 3. मीमांसा श्लोकवार्तिक, पृ. 142 । 4. अपदेसं सपदेस मुत्तममुत्तं च पूज्जयमजादं । पलयं गदं च जाणदि तं पाणमदिदियं भरिणदं ॥41॥ -प्रवचन सार 5. परे वदन्ति सर्वतो वीतरागो न विद्यते । किचिज्जत्वादशेषाणां सर्वदा रागत्त्वतः ॥ -अमितगति श्रावकाचार 4.48
SR No.524761
Book TitleJain Vidya 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1993
Total Pages102
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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