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________________ जनविद्या-13 ] [ 27 चतुर्थ, मीमांसकों की तीनों शंकाओं का निराकरण एवं सर्वज्ञसिद्धि के पश्चात् प्राचार्य ने ज्ञान की तारतम्यता के आधार पर सर्वज्ञ की सिद्धि की है। सभी व्यक्तियों के ज्ञान में तारतम्य है। एक व्यक्ति का ज्ञान अन्य से अधिक है। दूसरे का पहले व्यक्ति से अधिक है और तीसरे का दूसरे से अधिक है। इस प्रकार कोई व्यक्ति ऐसा है जिसका ज्ञान सबसे अधिक है । जो पूर्ण ज्ञान का धारक है । इस प्रकार जिस व्यक्ति में ज्ञान की अन्तिम अवस्था है जो पूर्ण ज्ञान है, वही सर्वज्ञ है । किन्तु यहाँ प्रश्न होता है कि उपर्युक्त सर्वज्ञसिद्धि से सामान्यरूप से सर्वज्ञ की सिद्धि की गई है जिससे यह सिद्ध नहीं होता है कि केवल जिनदेव ही सर्वज्ञ है, कपिल, बुद्ध आदि नहीं। इस समस्या का समाधान करते हुए आचार्य का कहना है कि जिनदेव के अतिरिक्त सभी व्यक्तियों में राग-द्वेष है और जिनमें राग-द्वेष है वे सर्वज्ञ नहीं हो सकते हैं। जिनदेव ही सच्चे वीतरागी हैं, अत: वे ही एकमात्र सर्वज्ञ हैं। - संसारी व्यक्तियों द्वारा मान्य देवों- ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर आदि में राग, द्वेष, क्रोध, मोह, अहंकार आदि दोष पाये जाते हैं और जिनमें ये दोष हों वह सर्वज्ञ नहीं हो सकता,12 जैसे कि सामान्य व्यक्ति । परम ब्रह्म को माननेवालों का मत है कि एक परम ब्रह्म है और इस जगत के जीव उसके अवयव हैं। वह परम ब्रह्म सब दोषों से रहित है ।13 यहाँ प्रश्न होता है कि जब किसी अवयवी के अवयव दोषों से युक्त हैं तब अवयवी दोषों से रहित कैसे हो सकता है ? अर्थात् ब्रह्म के अवयव रूप संसारी जीव राग-द्वेष से युक्त हैं तब वह अवयवीरूप ब्रह्म रागद्वेष से रहित कैसे हो सकता है ? अर्थात् वह वीतरागी नहीं है ।14 अतः वह सर्वज्ञ नहीं। न्याय-वैशेषिक आदि ईश्वरवादियों का मत है कि ईश्वर जगत का कर्ता है तथा जो जगत का कर्ता है वह विश्वदर्शी होता है। ईश्वरवादियों की युक्ति है कि यह समस्त जगत किसी बुद्धिमान पुरुष से निमित्त है, क्योंकि वह कार्य है और जो जो कार्य है वे किसी न किसी बुद्धिमान के द्वारा बनाए हुए हैं, जैसे-घट । अर्थात् जिस प्रकार कुम्भकार के बिना घट नहीं बन सकता उसी प्रकार जगत के पदार्थ, पर्वत, शरीर आदि ईश्वर के बिना उत्पन्न नहीं हो सकते । प्राचार्य ने इसका खण्डन करते हुए कहा है15 कि जिस प्रकार कर्तव्य हेतु से ईश्वर का कर्तापना और सर्वज्ञता सिद्ध होता है उसी प्रकार वह शरीरवाला भी सिद्ध होता है, क्योंकि कुम्भकार शरीरवाला है और आपने कुम्भकार के दृष्टान्त के द्वारा ईश्वर को जगत का कर्ता सिद्ध किया है। किन्तु इस युक्ति एवं दृष्टान्त से ईश्वर को जगत का कर्ता भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि उपर्युक्त तर्क से ईश्वर सशरीरी सिद्ध होता है और यदि ईश्वर सशरीर है तब कुम्भकार की तरह उसको भी प्रत्यक्ष होना चाहिए। किन्तु ईश्वर का
SR No.524761
Book TitleJain Vidya 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1993
Total Pages102
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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