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________________ 20 ] [ जैनविद्या-13 ज्ञानेन हीनः पशुरेव शुद्धः ज्ञान तृतीय पुरुषस्य नेत्र समस्ततत्त्वार्थविलोकदक्षम् । तेजोऽनपेक्षं विगतान्तरायं प्रवृत्तिमत्सर्वजगत्त्रयेऽपि ।1941 निःशेषलोकव्यवहारदक्षो ज्ञानेन मयों महनीयकोतिः । मेव्यः सतां सतमसेन हीनो विमुक्तिकृत्यं प्रति बद्धचित्तः ।1951 धर्मार्थकामव्यवहारशून्यो विनष्टनिःशेषविचारबुद्धिः। रात्रिदिवं भक्षणसक्तचित्तो ज्ञानेन होनः पशुरेव शुद्धः ।1961 - सुभाषितरत्नसंदोह - ज्ञान मनुष्य का तीसरा नेत्र है जो समस्त तत्त्वों और पदार्थों को देखने में समर्थ है। उसे किसी अन्य प्रकाश की अपेक्षा नहीं है और वह बिना किसी प्रकार की रुकावट के तीनों लोकों में सर्वत्र गतिशील है। 194। -ज्ञान के द्वारा मनुष्य समस्त लोक-व्यवहार में प्रवीण हो जाता है। उसका यश विश्व में फैल जाता है। सज्जन भी उसकी सेवा करते हैं। वे उसके पास ज्ञानार्जन के लिए आते । हैं । वह अज्ञानरूपी अन्धकार से रहित होता है तथा मुक्तिरूपी कार्य को सम्पादन करने में अपने चित्त को दृढ़तापूर्वक लगाता है ।1951 -किन्तु जो ज्ञान से शून्य होता है वह कोरा पशु ही होता है क्योंकि जैसे पशु धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ सम्बन्धी व्यवहारों को नहीं जानता वैसे ही वह भी उनसे अनभिज्ञ रहता है। उनके विषय में यथेच्छ प्रवृत्ति करता है । पशु के समान ही उसकी समस्त विचारशील बुद्धि नष्ट हो जाती है । वह रात-दिन पशु की तरह ही खाने पीने में लगा रहता है । उसे भक्ष्य-अभक्ष्य का विवेक नहीं रहता। 196 । -अनु. पं. बालचन्द्र सिद्धांतशास्त्री
SR No.524761
Book TitleJain Vidya 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1993
Total Pages102
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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