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________________ जैन विद्या- 13 1 [ 19 लोकालोक को दिखलानेवाला निर्मल केवलज्ञान जिस मौन से लीलामात्र में प्राप्त होता है, उससे अन्य कांक्षित वस्तु क्यों नहीं पाई जा सकती ? श्रावक को विनय, प्रायश्चित्त, वैयावृत्य, स्वाध्याय व्युत्सर्ग और ध्यान करना चाहिए । बारह प्रकार की अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करना चाहिए। इन सबका विशद विवेचन अमितगति श्रावकाचार में किया गया है। जो श्रावक इनका निरन्तर पालन कर अपनी जीवनचर्या को शुद्ध बनाता है वह अवश्य ही मुनिपद धारणकर मोक्ष का अधिकारी बनता है । संकल्पात्कृतकारितमननाद्योगत्रयस्य चरसत्वान् 1 न हिनास्ति यत्तदाहुः स्थूलवधाद्विरमणं निपुणाः 11 53 2. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 92-98 । 1. - रत्नकरंड श्रावकाचार
SR No.524761
Book TitleJain Vidya 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1993
Total Pages102
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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