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जैन विद्या - 13 ]
इसी प्रकार धर्म से हीन जीवन की निस्सारता बताई है -
अन्नेन गात्र नयनेन वक्त्रं नयेन राज्यं लवणेन भोज्यम् । धर्मेण हीनं बत जीवितव्यं न राजते चन्द्रमसा निशीथम् ॥
अर्थात् जिस प्रकार अन्न के बिना शरीर शोभा नहीं पाता, नेत्रों के बिना मुख शोभा नहीं पाता, नीति के बिना राज्य की शोभा नहीं होती, नमक के बिना भोजन अच्छा नहीं लगता और चन्द्रमा के बिना रात्रि शोभा नहीं देती उसी प्रकार धर्म के बिना जीवन शोभा नहीं पाता ।
सम्यक्त्व के सराग और वीतराग ऐसे दो भेदों को एक ही श्लोक में निम्न प्रकार दर्शाया है
संवेगप्रशमास्तिक्यकारुण्यव्यक्तलक्षणम् । सराग पटुभिर्ज्ञेयमूपेक्षा लक्षणं परम् ॥
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अर्थात् संवेग, ( धर्म के अनुराग ) प्रशम ( कषायों की मन्दता), आस्तिक्य ( प्राप्त, आगम और उसमें वरिणत पदार्थों में यथार्थ बुद्धि), करुणा ( दयाभाव ) - ये चारों भाव जिसमें पाये जायें वह सराग सम्यग्दर्शन है और संसार देह - भोगों से उपेक्षा करना वीतराग सम्यक्त्व है ।
आचार्य ने सम्यक्त्व की उपयोगिता निम्न प्रकार बताई है -
दर्शनबंधोर्न परो बंधुदर्शनलाभान्न परोलामः 1 दर्शन मित्रान्न परं मित्रं दर्शनसोख्यान्न परं सौख्यम् ॥
सम्यग्दर्शनरूपी बन्धु से श्रेष्ठ कोई बन्धु नहीं है, सम्यग्दर्शन के लाभ के सिवा अन्य कोई लाभ नहीं है, दर्शन के सिवा कोई मित्र नहीं है और दर्शन के सिवा कोई सुख नहीं है ।
इस सम्यग्दर्शन की श्रद्धा के विषयभूत सप्ततत्त्वों का विवेचन प्राचार्य ने विस्तार से किया है । इसी प्रकरण में प्रमाण और नय की विवक्षा से अन्यमतावलम्बियों के द्वारा मानी हुई तत्त्व व्यवस्था का भी खण्डन किया है । जीव की सत्ता न माननेवाले चार्वाक को अनेक दृष्टान्तों द्वारा जीव को सनातन सिद्ध करके समझाया है । प्रत्येक जीव अपने सुखदुःख की प्रतीति स्वयं करता है, यदि समान रूप से समान पंचभूतों द्वारा जीव की सत्ता सिद्ध होती है तो पृथक्-पृथक् जीव अपने सुख दुःख का भान कैसे करें ?
ग्रहं दुःखी सुखी चाहमित्येषः प्रत्यय: स्फुटम् । प्राणिनां जायतेऽध्यक्षो निर्बाधो नात्मना बिना ॥