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________________ 4 1 [ जैनविद्या- 13 मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ ऐसी प्रतीति प्रत्येक जीव के पृथक्-पृथक् प्रत्यक्ष देखी जाती है । यह प्रतीति निर्बाध रूप से आत्मा के बिना नहीं देखी जा सकती । इसी प्रकार सांख्य के अद्वैत मत का तथा अकर्तापन का खण्डन किया है। नैयायिक के आत्मा और ज्ञान के समवाय सम्बन्ध का खण्डन करते हुए बताया है कि यदि श्रात्मा और ज्ञान पृथक् पृथक् रहते हैं तो अर्थ क्रियाकारिता नहीं बन सकती । इसी प्रकार शून्यमत क्षणिकबौद्धमत आदि सभी विपरीताभिनिवेश के माननेवालों का सयुक्तिक खण्डन कर जैन सिद्धान्त की तत्त्व व्यवस्था को सही सिद्ध किया है । अपौरुषेय श्रागम का खण्डन और सर्वज्ञ की सिद्धि प्राचार्य अमितगति ने अपने श्रावकाचार में अनेक युक्तियों से की है। यह विषय अन्य श्रावकाचारों से विशेष देखने को मिलता है । मिथ्यात्व को सदोष तथा सम्यक्त्व को निर्दोष सिद्ध करने में प्राचार्य ने काफी ऊहापोह किया है । अन्यमत जो कर्म को स्वीकार नहीं करता उसे अनेक युक्तियों से ( कर्म - सिद्धान्त को ) सत्य सिद्ध किया है । संसारी जीवों में रागद्वेष, मद-मत्सर, शोक, क्रोध, लोभ, भय, काम, मोह इत्यादि जीव के कर्म के बिना नहीं होते। जो इनको जीव में ही होने रूप स्वाभाविक मानें तो इनका नाश कर मोक्ष में कैसे जावें । इसके अतिरिक्त संसार में उनकी तरतमता भी देखने को मिलती है । यह जीव में नैमित्तिक है, यह प्राचार्य ने सिद्ध कर जैनदर्शन की विशेषता सिद्ध की है । इस प्रकार प्राचार्य ने श्रावकाचार की सभी विधाओं को विस्तार से बतलाया है। जैसे - सप्तव्यसनों का निराकरण, अष्ट मूलगुरण, पांच अणुव्रत, तीन गुरणव्रत, चार शिक्षाव्रत, सल्लेखना इन सब के अतिचारों का वर्णन भी विस्तार से किया है । भोग- भूमि का वर्णन इस श्रावकाचार की विशेषता है। ध्यान, ध्याता, ध्येय और ध्यान का फल अन्य श्रावकाचारों में नहीं मिलता, यह इसी की विशेषता है | श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन भी विशेष रूप से समझाया गया है । इस प्रकार अनेक विशेषताओं वाला अन्य श्रावकाचारों में निराला ही यह श्रावकाचार है । 2. धर्मपरीक्षा - श्राचार्य देव ने यह एक अद्भुत व्यंग्यात्मक रचना रची है । इसमें जगत् में व्याप्त मिथ्या एवं अस्वाभाविक मान्यताओं, अन्धविश्वासों तथा धर्म के विषय में मानी हुई असम्भव कल्पनाओं पर आधारित प्रमानवीय विचारधारानों को व्यंग्यात्मक ढंग से कथानकों का आश्रय लेकर खण्डित किया है। इस रचना में अविश्वसनीय, अबुद्धिसंगत, पौरारिणक प्राख्यानों का खण्डन, आक्रामक शैली का सहारा न लेकर सुझावात्मक शैली से किया है ।
SR No.524761
Book TitleJain Vidya 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1993
Total Pages102
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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