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जैनविद्या
यहां वर्णादि को जीव का कहना उपचारात्मक असद्भूतव्यवहारनय है तथा राग-द्वेषमोह आदि विभिन्न गुणस्थानान्तर्गत भावों को जीव का कहना यथार्थप्रसद्भूतव्यवहारनय है।
- जीव में रागादि पराश्रित भावों के अस्तित्व का कथन करनेवाले असद्भूतव्यवहारनय को आचार्यों ने अशुद्धनिश्चयनय की संज्ञा दी है, इसी से सिद्ध है कि वह उपचारात्मक असद्भूतव्यवहारनय ने भिन्न है (स. सा. 11, ता. वृ. 57)। इसी प्रकार दो द्रव्यों के निमित्तनैमित्तिकादि सम्बन्धों के कथन को नहीं अपितु उनके आधार पर एक के धर्म का दूसरे पर आरोप करने को उपचार कहा है। इससे सिद्ध है कि निमित्तनैमित्तिकादि सम्बन्धों का कथन उपचार नहीं अपितु यथार्थ कथन है । परद्रव्यसम्बन्ध तथा परद्रव्याश्रितभाव का कथन "भिन्नवस्तुसम्बन्धविषयोऽसद्भूतव्यवहारः" (आलापपद्धति) लक्षण के अनुसार असद्भूतव्यवहारनय है । पंचाध्यायीकार ने रागादि भावों के कथन को असद्भूतव्यवहारनय का ही विषय कहा है (पंचाध्यायी 1/546) ।
इस प्रकार प्राचार्य कुन्दकुन्द के निरूपणों से असद्भूत व्यवहारनय के दो भेद आविर्भूत होते हैं-1. उपचारात्मक असद्भूत व्यवहारनय और 2. यथार्थ असद्भूत व्यवहारनय । उपचारात्मक असद्भूत व्यवहारनय का मुख्यार्थ असत्य होता है किन्तु यथार्थ असद्भूत व्यवहारनय का मुख्यार्थ सत्य । जैसे-'जीव पुद्गलकर्मों का कर्ता है' अर्थात् जीव पुद्गलकर्मों का कर्ता नहीं होता, निमित्तमात्र होता है । तथा 'जीव पुद्गलकर्मों का निमित्त है' यह यथार्थ असद्भूत व्यवहारनय है । इसका मुख्यार्थ सत्य है क्योंकि जीव के शुभाशुभभाव वास्तव में पुद्गल कर्मों के निमित्त होते हैं ।