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________________ जैन विद्या 77 __अर्थात् जीव के शुभाशुभ परिणामों के निमित्त से पुद्गल द्रव्य कर्मरूप से परिणमित हो जाता है, उसी प्रकार पुद्गलकर्मों के निमित्त से जीव भी शुभाशुभभावरूप से परिणमित हो जाता है। यह दो द्रव्यों के यथार्थ सम्बन्ध का निरूपण है और यह निश्चयनयात्मक न होकर असद्भूतव्यवहारनयात्मक है, क्योंकि दो द्रव्यों में सत्तात्मक अभेद न होने से उनका कोई भी सम्बन्ध यथार्थ होते हुए भी परमार्थभूत नहीं होता। प्राचार्य अमृतचन्द्र ने पंचास्तिकाय (गाथा 89) की टीका में धर्म और अधर्म द्रव्यों तथा जीव और पुद्गल की गतिस्थिति के निमित्तनैमित्तिकसंबंध को व्यवहारनय व्यवस्थापित कहा है । यह व्यवहारनय भी यथार्थनिरूपक असद्भूतव्यवहारनय है । असद्भूतव्यवहारनय यथार्थ का निरूपक भी होता है यह तत्वार्थश्लोकवार्तिककार के निम्न वचनों से भी प्रामाणित है "तदेवं व्यवहारनयसमाश्रयणे कार्यकारणभावो द्विष्ठः सम्बन्धः संयोग समवायादिवत् प्रतीतिसिद्धत्वात् पारमार्थिक एव न पुनः कल्पनारोपितः सर्वथाप्ययनवद्यत्वात् ।” तत्वार्थश्लोकवातिक 1.7 अर्थात् व्यवहारनय पर आश्रित दो वस्तुओं में रहनेवाला निमित्तनैमित्तिकसम्बन्ध, संयोग, समवाय आदि सम्बन्धों के समान प्रतीति-सिद्ध होने से वास्तविक ही है, कल्पनारोपित नहीं। इसी प्रकार पुद्गल कर्म के निमित्त से जीव के जो प्रौदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक तथा क्षायिक भाव होते हैं वे भी प्रात्मवस्तु की सत्ता के अंग नहीं हैं, उनके बिना भी प्रात्मा की सत्ता रहती है । जैसे मुक्तावस्था में औदयिक, औपशमिक तथा क्षायोपशमिक भाव नहीं रहते तथा संसारावस्था में क्षायिकभाव नहीं रहता, किन्तु प्रात्मा की सत्ता रहती है। इस प्रकार ये परद्रव्याश्रित भाव भी यद्यपि यथार्थ हैं तो भी परमार्थभूत न होने से निश्चयनय से आत्मा के नहीं हैं, असद्भूतव्यवहारनय से आत्मा के हैं । निम्नलिखित गाथा में प्राचार्य कुन्दकुन्द ने इन्हें व्यवहारनय से जीव का कहा है ववहारेण दु एदे जीवस्स हवंति वण्णमादीया । गुरपठारवंता भावा ण दु केई पिच्छयरणयस्स ।। 56 ॥ स. सा. अर्थात् वर्णादि से लेकर गुणस्थानपर्यन्त भाव व्यवहारनय से जीव के हैं, निश्चयनय से नहीं (चौदह गुणस्थानों में प्रौदयिक प्रादि चारों प्रकार के औपाधिक भाव मा जाते हैं)।
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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