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________________ कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों में सम्यग्चारित्र की अवधारणा -डॉ. राजकुमारी जैन सम्यग्चारित्र निरन्तर आत्मनिरीक्षण, आत्मविश्लेषण तथा आत्मानुभवपूर्वक प्रात्मशोधन करते हुए अपने परमात्मस्वरूप को प्राप्त करानेवाली प्रक्रिया है । प्रात्मा स्वभावतः एक शुद्ध चैतन्यस्वरूप, अशरीरी, शाश्वत, अनन्तदर्शनज्ञानसुखवीर्यमय सत्ता है जो संसारी अवस्था में अल्प ज्ञान, अल्प शक्ति तथा अल्प सुख से युक्त है और शरीर धारण करके निरन्तर जन्म-मरण कर रहा है। उसकी इस अवस्था का कारण उसका अपने स्वरूप के प्रति अज्ञान तथा उसके परिणामस्वरूप उत्पन्न होनेवाले राग, द्वेष, काम क्रोधादि विकारी भाव और उनके कारण बंधनेवाले ज्ञानावरणीयादि पुद्गल कर्म हैं । इन विकारी भावों और पुद्गल कर्मों के कारण जीव की अनन्त ज्ञानादि शक्तियाँ लुप्त हो जाती हैं जिसके फलस्वरूप वह शरीर से संयुक्त होकर अल्पज्ञानादि का ही अनुभव कर पाता है । व्यक्ति सम्यग्चारित्र का अवलम्बन कर अपने समस्त विकारों तथा ज्ञानावरणीयादि कर्मों को समाप्त करके ही जन्म-मरण के चक्र से छुटकारा तथा अपने अनन्तज्ञानादि परम वैभव-सम्पन्न स्वरूप को प्राप्त कर सकता है। चारित्र शब्द का अर्थ है व्यक्ति का आचरण या उसके द्वारा की गयी क्रियाएँ । व्यक्ति का चारित्र सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान पूर्वक ही सम्यक् हो सकता है । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र को परिभाषित करते हुए कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं-"जीवादि पदार्थों का श्रद्धान दर्शन, उनका निश्चय ज्ञान तथा रागादि को दूर करना चारित्र, यही मोक्षमार्ग है ।"1 लेकिन साथ ही वे यह भी कहते हैं- “जीवादि पदार्थों के श्रद्धान को
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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