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________________ जैनविद्या 63 इस प्रकार आत्मा की अद्भुत ज्ञानशक्ति और द्रव्यों की अद्भुत ज्ञेयत्व शक्ति के कारण केवलज्ञान में समस्त द्रव्यों की तीनों काल की पर्यायों का एक ही समय में भासित होना अविरुद्ध है ।14 अब अविद्यमान (अतीत व अनागत) पर्यायों की भी कथंचित् (किसी एक अपेक्षा से) विद्यमानता बतलाते हैं जो पर्यायें वास्तव में उत्पन्न होकर नष्ट हो गई हैं तथा जो अभी उत्पन्न ही नहीं हुई हैं, वे सब अविद्यमान पर्यायें ज्ञान में सीधी ज्ञात होने से केवलज्ञान-प्रत्यक्ष हैं। यद्यपि वे अनुत्पन्न और विनष्ट पर्यायें भी केवलज्ञान में वर्तमानवत् विद्यमान हैं, यह बात जनसामान्य के चित्त में सहज स्वीकृत नहीं होती, परन्तु यदि अनुत्पन्न व नष्ट पर्यायें केवलज्ञान में प्रत्यक्ष न हों तो उस ज्ञान को दिव्य कौन कहेगा ? पराकाष्ठा को प्राप्त ज्ञान के लिए यह सब संभव है। अनन्त महिमावन्त केवलज्ञान की यह दिव्यता है कि वह अनन्त द्रव्यों की समस्त पर्यायों को सम्पूर्णतया एक ही समय प्रत्यक्ष जानता है । जो ज्ञान प्रप्रदेश को, सप्रदेश को, मूर्त को, और अमूर्त को तथा अनुत्पन्न और नष्ट पर्याय को जानता है वह ज्ञान अतीन्द्रिय कहा गया है ।15 आगे पुनः क्षायिकज्ञान को परिभाषित करते हुए प्राचार्य कहते हैं जो ज्ञान पूरी तरह से वर्तमान, अतीत, अनागत, विचित्र, विषम सब पदार्थों को एकसाथ जानता है उस ज्ञान को क्षायिक कहा है ।16 .. आगे पुनः इसी बात को विशेष स्पष्ट करते हुए नाना युक्तियों से सर्वज्ञता का स्वरूप निर्धारित करते हुए कहते हैं-जो तीनों लोकों में स्थित, त्रिकालवर्ती पदार्थों को एकसाथ नहीं जानता वह अनंत पर्यायों सहित एक द्रव्य को भी नहीं जान सकता तथा जो अनन्त पर्यायों सहित एकद्रव्य को नहीं जान सकता, वह समस्त अन्य द्रव्यों को कैसे जान सकता है ?17. जिनेन्द्रदेव का ज्ञान त्रिकालवर्ती सर्वत्र विद्यमान विषम और विचित्र पदार्थों को एकसाथ जानता है, ज्ञान का यह माहात्म्य आश्चर्यजनक है। क्षायिकज्ञान की उक्त व्याख्या से यह स्पष्ट है कि केवलज्ञान सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होता है । वर्तमान की तरह वह अतीत व अनागत पर्यायों को भी जानता है । एक द्रव्य में जितनी अतीत, अनागत और वर्तमान अर्थपर्यायें होती हैं उन सबका समुदाय ही तो द्रव्य होता है । अतः उन सबको जाने बिना एक द्रव्य का पूरा ज्ञान नहीं होता। पूर्ण ज्ञान वही है जो सबको जानता है । वस्तुव्यवस्था के नियमानुसार सत् का कभी विनाश नहीं होता और न सर्वथा प्रसत् का उत्पाद होता है । अतः द्रव्यदृष्टि से अतीत व अनागत पर्यायें समुद्र की लहरों
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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