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________________ 04 जैन विद्या की भाँति द्रव्य में विलीन हो जाने पर भी सत् हैं और जो सत् हैं वे सब ज्ञेय हैं, अतः सर्वज्ञ के ज्ञान की विषय हैं। ___ प्रवचनसार का ज्ञानाधिकार समाप्त करते हुए कुन्दकुन्द के प्रमुख टीकाकार प्राचार्य अमृतचन्द्र ने अपने कलश में कहा है जिसने कर्मों को छेद डाला है वह आत्मा भूत, भविष्यत् और वर्तमान समस्त विश्व को अर्थात् तीनों कालों की पर्यायों से युक्त समस्त पदार्थों को एक ही साथ जानता हुआ भी मोह के अभाव के कारण पररूप परिणमित नहीं होता, इसलिए अब जिसके समरूप ज्ञेयाकारों को अत्यन्त विकसित ज्ञप्ति के विस्तार से स्वयं पी गया है-ऐसे तीन लोक के पदार्थों को पृथक् और अपृथक् प्रकाशित करता हुआ वह ज्ञानमूर्ति मुक्त ही रहता है ।18 . केवलज्ञानरूपी तीसरे नेत्र से जिनकी महिमा प्रकट है, जो तीन लोक के गुरु हैं तथा जिनका अनन्त घाम तेज या बल है, ऐसे तीर्थनाथ जिनेन्द्र भगवान् लोकालोक को अर्थात् स्व-पर को एवं समस्त चेतन-अचेतन पदार्थों को सम्यक् प्रकार से जानते हैं ।19 इस संदर्भ में जितना अधिक चिन्तन-मनन एवं अध्ययन किया जाय वह उतना ही अधिक उपयोगी है। 1. , श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागम तपो भृताम् । त्रिमूढापोढमष्टांग सम्यग्दर्शनमस्ययम् ।। 4 ।। रत्नकरण्ड श्रावकाचार 2. जो जाणदि अरहंत दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं । सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं ।। 80 ॥ प्रवचनसार . 3. मुत्तममुत्तं दव्वं चेयणमिदरं सगं च सव्वं च । पेच्छंतस्स दु णाणं पच्चक्खमरिणदियं होइ ।। 167 ॥ नियमसार ___जं पेच्छदो अमुत्तं मुत्तेसु अदिदियं च पच्छण्णं । सकलं सगं च इदरं तं गाणं हवदि पच्चक्खं ।। 54 ॥ प्रवचनसार अप्पसरूवं पेच्छदि लोयालोयं ण केवली भगवं । जदि कोइ भणदि एवं, तस्स य किं दूसणं होइ ।। 166 ।। नियमसार 6. लोयालोयं जाणदि, अप्पाणं णेव केवली भगवं । जदि कोइ भणदि एवं, तस्स य किं दूसणं होइ ।। 169 ।। नियमसार 7. विश्वमश्रातं जानत्रपि पश्यन्तपि वा मनःप्रवृत्तेरभावादीहापूर्वकं वर्तनं न भवति तस्य केवलिनः । अथ एकस्य ज्ञायकभावस्य समस्त ज्ञेयभावस्वभावत्वात् प्रोत्कीर्ण लिखित निखात् कीलित मज्जित समावर्तित प्रतिबिम्बितवतत्रक्रमप्रवृत्तानन्तभूतभवद्भाविविचित्रपर्यायप्राग्भारमगाधस्वभावं गंभीरं समस्तमपि द्रव्यजातमेकक्षण एव प्रत्यक्ष यत ।
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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