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________________ 62 जैनविद्या की समस्त पर्यायों से युक्त समस्त विश्व को एक ही साथ जानता हुआ भी मोह के अभाव के कारण पररूप परिणमित नहीं होता, इसलिए अब जिसके समस्त ज्ञेयाकारों को अत्यन्त विकसित ज्ञप्ति के विस्तार से स्वयं पी गया है- ऐसे तीन लोक के पदार्थों को पृथक् और अपृथक् प्रकाशित करता हुआ वह ज्ञानमूर्ति मुक्त ही रहता है । आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार के ज्ञानाधिकार में शुद्धोपयोग का फल बतलाते हुए प्रात्मा के सर्वज्ञ होने की चर्चा विस्तार से की है। उन्होंने लिखा है-शुद्धोपयोगी आत्मा ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय और मोहनीय कर्मरूपी रज को दूर करके स्वयं ही ज्ञेयभूत पदार्थों के अन्त को प्राप्त करता है अर्थात् वह सब लोकालोक को जान लेता है ।10 आगे सर्वज्ञता की व्याख्या करते हुए प्राचार्य कहते हैं कि केवलज्ञानरूप परिणमते हुए केवली भगवान् के निश्चय से अर्थात् वस्तुत: सब द्रव्य तथा उनकी तीनों कालों की सम्पूर्ण पर्यायें प्रत्यक्ष हैं, प्रकट हैं क्योंकि उन केवली भगवान् के सब तरफ से कर्मों का आवरण दूर हो जाने के कारण अखण्ड-अनंत शक्ति से पूर्ण आदि-अन्त-रहित असाधारण केवलज्ञान प्रकट हो गया है । इस कारण उनके एक ही समय में सब द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव ज्ञानरूपी भूमि में प्रत्यक्ष झलकते हैं ।11 इसी क्रम में आगे केवलज्ञान का सर्वगतत्व-सर्वव्यापकत्व सिद्ध करते हुए कहा गया है-आत्मा ज्ञानप्रमाण है, ज्ञेयप्रमाण है, ज्ञेय लोकालोक है, अतः ज्ञान सर्वव्यापक है । देखो, द्रव्य अपने गुण-पर्यायों से अनन्य (अभिन्न) होता है, इसलिए प्रात्मा ज्ञानगुण से हीनाधिक नहीं है, ज्ञानप्रमाण ही है और ज्ञेयों का अवलम्बन करनेवाला ज्ञान ज्ञेयप्रमाण है तथा ज्ञेय तो समस्त लोकालोक है ही । अतः सर्व आवरण क्षय होते ही ज्ञान सबको जानने लगता है, फिर कभी भी उसके जाननेरूप क्रिया से च्युत नहीं होता। इसलिए ज्ञान सर्वव्यापक है ।12 प्राचार्य अब यह सिद्ध करते हैं कि द्रव्यों की अतीत और अनागत पर्यायें भी तात्कालिक पर्यायों की भांति पृथक् रूप से ज्ञान में वर्तती हैं । वे लिखते हैं-उन जीवादि द्रव्यों की विद्यमान और अविद्यमान पर्यायें तात्कालिक पर्यायों की भाँति विशिष्टतापूर्वक अपने भिन्न-भिन्न स्वरूप में ज्ञान में वर्तती हैं ।13 यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि ज्ञान नष्ट और अनुत्पन्न पर्यायों को वर्तमानकाल में कैसे जान सकता है ? समाधान यह है कि जब अल्पज्ञजीव का ज्ञान भी नष्ट और अनुत्पन्न वस्तुओं का चिन्तवन कर सकता है, अनुमान के द्वारा जान सकता है, तदाकार हो सकता है, तब फिर पूर्ण ज्ञान नष्ट व अनुत्पन्न पर्यायों को क्यों न जान सकेगा ? ज्ञान में ऐसी शक्ति है कि वह चित्रपट की भाँति अतीत और अनागत पर्यायों को भी जान सकता है तथा आलेख्यत्वशक्ति की भाँति द्रव्य की श्रेयत्व शक्ति भी ऐसी है कि उनकी अतीत व अनागत पर्यायें ज्ञान में ज्ञेय रूप से ज्ञात होती हैं ।
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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