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________________ जैनविद्या 61 नियमसार की ही 159वीं गाथा में स्पष्ट कहा है - जागदि पस्सदि सव्वं, ववहारणएण केवलीभगवं । केवलणाणी जाररादि, पस्सदि रिणयमेण अप्पारणं ।। -व्यवहारनय से केवली भगवान् सब जानते हैं और देखते हैं तथा निश्चय से केवलज्ञानी केवल प्रात्मा को (स्वयं को) ही जानते-देखते हैं । यहाँ केवलज्ञानी के स्व-पर स्वरूप का प्रकाशकपना कथंचित् कहा है। व्यवहारनय से ये भगवान् घातिया कर्मों के नाश से प्राप्त सकल विमल केवलज्ञान और केवलदर्शन द्वारा त्रिलोकवर्ती तथा त्रिकालवर्ती सचराचर द्रव्य-गुण-पर्यायों को एक समय में जानते और देखते हैं तथा शुद्ध निश्चयनय से सर्वज्ञ वीतराग परमेश्वर के शुद्धोपयोग में परद्रव्य के ग्राहकत्व, दर्शकत्व, ज्ञायकत्व आदि के विविध विकल्पों का अभाव होने से वे स्वयं कार्यपरमात्मा होते हुए भी त्रिकाल निरूपाधि, निरवधि, नित्य शुद्धस्वरूप अपने सहज ज्ञान व सहज दर्शन से निज कारण परमात्मा को ही जानते-देखते हैं। उपर्युक्त दोनों ही कथन केवल 'स्वाश्रितो निश्चयः' एवं 'पराश्रितो व्यवहारः' इस शास्त्र-वचन के अनुसार सापेक्ष जानना चाहिए। इससे स्पष्ट फलित होता है कि केवली की परपदार्थज्ञता असत्यार्थ नहीं है, काल्पनिक नहीं है। नियमसार गाथा 172 की तात्पर्यवृत्ति टीका में कहा है-विश्व को निरन्तर जानते हुए और देखते हुए भी केवली की मनःप्रवृत्ति का अभाव होने से उनके इच्छापूर्वक वर्तन नहीं होता ।' प्रवचनसार माथा 200 की तत्त्वप्रदीपिका टीका में कहा है-एक ज्ञायकभाव का समस्त ज्ञेयों को जानने का स्वभाव होने से मानो वे द्रव्य ज्ञायक में उत्कीर्ण हो गये हों, चित्रित हो गये हों, भीतर घुस गये हों, कीलित हो गये हों, डूब गये हों, समा गये हों, प्रतिबिम्बित हो गये हों ऐसे अगाध और गम्भीर तथा क्रमश: प्रवर्तमान अनंत भूतवर्तमानभावी विचित्र पर्याय समूहवाले द्रव्यों की ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध की अनिवार्यता के कारण वह शुद्धात्मा एक क्षण में ही प्रत्यक्ष करता है 18 इसी बात को प्रवचनसार की 32वीं गाथा की तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार कहा है-एकसाथ ही सर्व पदार्थों के समूह का साक्षात्कार करने से, ज्ञप्ति परिवर्तन का अभाव होने से समस्त परिच्छेद्य आकारों रूप परिणत होने के कारण जिसके ग्रहरणत्याग क्रिया का अभाव हो गया है तथा पररूप से - आकारान्तररूप से परिणत न होता हुआ सर्वप्रकार से अशेष विश्व को देखता-जानता है । निश्चय से पर को न जानने का तात्पर्य उपयोग का पर के साथ तन्मय न होना है । प्रवचनसार की गाथा 52 की तत्त्वप्रदीपिका टीका के चौथे कलश में स्पष्ट कहा है-जिसने कर्मों को छेद डाला है, वह आत्मा भूत-भविष्यत् और वर्तमान तीनों कालों
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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