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________________ 60 जैनविद्या विषय में अवसर मिला, सर्वज्ञ के स्वरूप को सयुक्तिक समझाने का प्रयास किया है । जब तक सर्वज्ञ के स्वरूप की यथार्थ प्रतीति नहीं होती तब तक अपने सर्वज्ञस्वभावी भगवान् आत्मा की प्रतीति और प्राप्ति नहीं होती क्योंकि प्रतीति के बिना कोई भी व्यक्ति उसकी प्राप्ति का पुरुषार्थ नहीं करता । अतः सर्वप्रथम सर्वज्ञ का स्वरूप समझाकर उसकी प्रतीति कराई जाती है। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने अपने प्रवचनसार, नियमसार आदि ग्रन्थों में यथास्थान सर्वज्ञ का एवं सर्वज्ञस्वभावी आत्मा का विस्तृत विवेचन किया है। उनके टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्र, प्राचार्य जयसेन और मुनिराज पद्मप्रभमलधारी देव ने भी उनके मूलभूत संक्षिप्त सूत्रात्मक कथनों का नाना युक्तियों और उदाहरणों से सुगठित गद्य और सरस पद्यों में अच्छा स्पष्टीकरण किया है जो मूलतः द्रष्टव्य है । नियमसार ग्रन्थ के शुद्धोपयोग अधिकार में केवलज्ञान के स्वरूप का कथन करते हुए प्राचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं - त्रिकालस्वभावी समस्त मूर्त-अमूर्त, चेतन-अचेतन द्रव्यों को अर्थात् स्वद्रव्य को तथा समस्त परद्रव्यों को निरन्तर देखने-जाननेवाले अरहंत भगवान् का केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है। इसी बात को प्रवचनसार के ज्ञानतत्त्व प्रज्ञापन अधिकार में कहा है-जो ज्ञान अमूर्त को मूर्त पदार्थों में भी अतीन्द्रिय (सूक्ष्म) और प्रच्छन्न पदार्थों को अर्थात् सम्पूर्ण स्व एवं पर पदार्थों को देखता है वह ज्ञान प्रत्यक्ष है । नियमसार ग्रन्थ की 166 और 169वीं गाथा के द्वारा स्वयं कुन्दकुन्दाचार्य ने निश्चय-व्यवहार नयों को निरपेक्ष दृष्टि से देखने पर उत्पन्न होनेवाले संदेह का समाधान । करते हुए उनकी सापेक्षता की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है । वे कहते हैं निश्चय से केवली भगवान् केवल आत्मस्वरूप को ही देखते हैं, लोकालोक को नहीं- यदि कोई ऐसा कहे तो भी कोई दोष नहीं है ।। व्यवहार से केवली भगवान् मात्र लोकालोक को ही जानते-देखते हैं, आत्मा को नहीं, यदि कोई ऐसा कहे तो भी उसे कोई दोष नहीं है। ज्ञान जीव का स्वरूप है, इसलिए आत्मा-प्रात्मा को अर्थात् स्वयं को जानता है । यदि ज्ञान आत्मा (स्वयं) को न जाने तो ज्ञान आत्मा से पृथक सिद्ध होगा तथा यदि वह केवलज्ञान पर को न जाने तो उसे दिव्य कौन कहेगा? अतः 'स्वाश्रितो निश्चयः' की अपेक्षा यदि निश्चय से केवल आत्मा को जाननेवाला कहा जाय तो भी कोई दोष नहीं है तथा 'पराश्रितो व्यवहारः' की अपेक्षा व्यवहार से केवलज्ञान को पर को जाननेवाला कहा जाय तो भी कोई दोष नहीं है। अतः यह संदेह नहीं करना चाहिए कि केवलज्ञान लोकालोक को नहीं जानता अथवा निजात्मा को नहीं जानता। ..
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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