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________________ 28 जनविद्या अर्थात् जिस प्रकार कोई फल पककर जब गिर जाता है तब वह पुनः बौंडी के के साथ नहीं बंध सकता। उसी प्रकार जब जीव का कर्मभाव पककर गिर जाता है तब वह पुनः उदय को प्राप्त नहीं होता । कूट-पद-प्रयोग कूट-पदों के प्रयोग कुन्दकुन्द साहित्य में प्रचुरता से नहीं मिलते। क्वचित्-कदाचित् ही मिलते हैं। वस्तुतः इस प्रकार की रचनाएँ जिनके कि शब्दों के साथ साधारण अर्थ भी रहते हैं फिर भी सरलता से उनका भाव समझने में कठिनाई होती है और जिनका अर्थ शब्दों की भूल-भुलैया में प्रच्छन्न रहता है, वे कूट-पद कहलाते हैं । कुन्दकुन्द साहित्य में भी कहीं-कहीं इस प्रकार के कुछ कूट-पद उपलब्ध हैं । उदाहरणार्थ तिहि तिषिण धरवि पिच्चं तियरहिनो तह तिएण परियरियो। दोदोसविप्पमुक्को परमप्पा झायए जोई ॥ 44 मो० पा० अर्थात् तीन (मन, वचन एवं काय) के द्वारा तीन (वर्षाकाल योग, शीतकाल . योग और उष्णकाल योग) को धारण कर निरन्तर तीन (माया, मिथ्यात्व एवं निदान रूप शल्यों) से रहित तीन (सम्यग्दर्शन आदि तीन रत्नों) से युक्त और दो दोषों (राग एवं द्वेष) से रहित योगी परमात्मा अर्थात् सिद्ध के समान उत्कृष्ट आत्मस्वरूप का ध्यान करता है। (इस पद्य का अर्थ विषय का विशेष जानकार ही समझ सकता है, सामान्य बुद्धिवाला व्यक्ति नहीं । इस प्रकार के पद्य कूट-पद-छन्द-योजना कहलाते हैं ।) छन्द-योजना जिस प्रकार संस्कृत में आर्या छन्द एवं अपभ्रंश का दूहा छन्द प्रसिद्ध है उसी प्रकार प्राकृत का गाथा छन्द प्रसिद्ध है। ये तीनों छन्द सरल, सरस एवं गेय तथा द्विपदी होने के कारण कण्ठस्थ कर लेने में सुविधाजनक होने से प्रारम्भ से ही लोकप्रिय कुन्दकुन्द-साहित्य का प्रमुख छन्द गाथा है । प्राभृत साहित्य विशेषतया भावप्राभृत, मोक्षप्राभृत एवं समयप्रामृत तथा नियमसार में अनुष्टुप् छन्द का प्रयोग भी प्रचुर मात्रा में मिलता है। भाषा की सरलता, लौकिक उदाहरण के कारण सहज बोधगम्य तथा गेयता की दृष्टि से निम्न गाथा द्रष्टव्य है जह पउमरायरयणं खित्तं खीरं पभासयदि खीरं। तह बेही देहत्यो सहमत्तं पमासयदि ॥ 33 पंचास्ति. अर्थात् जिस प्रकार दूध में पड़ा हुआ पद्मरागमणि सम्पूर्ण दूध को प्रभासित कर देता है उसी प्रकार शरीर में स्थित आत्मा समस्त शरीर को प्रभासित कर लेता है ।
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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