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________________ जैनविद्या 27 जह सलिलेण ण लिप्पइ कमलिणिपत्तं सहावपयडीए। तह भावेण ण लिप्पइ कसायविसयेहिं सप्पुरिसो॥ 153 भाव० पा० रूपकालंकार निम्नलिखित उद्धरणों में उपमेय में उपमान का निषेधरहित आरोप किया गया है, अतः उन में रूपकालंकार का सहज प्रयोग देखा जा सकता है ते धीरवीरपुरिसा खमदमखग्गेण विप्फुरतेण । दुज्ज्यपबलबलुद्धरकसायभडरिणज्जिया जेहिं ॥ 155 भाव० पा० मायावेल्लि असेसा मोहमहातरुम्मि प्रारूढा। विसयविसपुप्फफुल्लिय लुणंति मुरिण गाणसत्थेहि ॥ 157 माव० पा० अप्रस्तुतप्रशंसालंकार 'गुड़मिश्रित दूध पीने पर भी सर्प विष-रहित नहीं हो सकता' इस उक्ति के द्वारा अप्रस्तुत-प्रशंसा का सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत किया है । यथा ण मुयइ पयडि प्रभवो सुठुवि प्रायण्णिऊरण जिणधम्म । __ गुडसुद्धं पि पिवंता ण पण्णया सिव्विसा होति ॥ 137 मा० पा० उदाहरणालंकार कुन्दकुन्द साहित्य में उदाहरणालंकारों की छटा तो प्रायः सर्वत्र बिखरी हुई है । कुन्दकुन्द ने बालावबोध के लिए लौकिक उपमानों एवं उपमेयों के माध्यम से अपने सिद्धान्तों को पुष्ट करने का प्रयास किया है। उनके ये उपमान उपमेय परम्परागत न होकर प्रायः सर्वथा नवीन हैं। नई-नई उद्भावनाओं के द्वारा उन्होंने उदाहरणों की झड़ी सी लगा दी है। समयसार के पुण्य-पापाधिकार में पुण्य-पाप की प्रवृत्ति को समझाने के लिए उन्होंने कितना सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत किया है सोवणियं पि रिणयलं बंधदि कालायसं च जह पुरिसं। बंधदि एवं जीवं सुहमसुहं वा कदं कम्मं ॥146॥ अर्थात् जिस प्रकार लोहे की बेड़ी हो या सोने की बेड़ी दोनों ही पुरुष को बाँधती हैं उसी प्रकार किया गया शुभ-अशुभ कर्म भी जीव को बाँधता ही है। इसी प्रकार कर्मभाव के पककर गिरने के लिए पके हुए फल के गिरने का सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत किया गया है पक्के फलम्मि पडिए जह रण फलं बज्झए पुणो विटे । जीवस्स कम्ममावे पडिए ण पुणोदयमुवेइ॥ 168 स० सा०
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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