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जैनविद्या
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अनुष्टुप
जो दु पुण्णं च पावं च, भावं वज्जेदि णिच्चसा ।
तस्स सामाइगं ठाई इदि केवलिसासणे ॥ 130 नि० सा० इस प्रकार यहाँ प्राचार्य कुन्दकुन्द की रचनाओं के साहित्यिक मूल्यांकन का एक लघु प्रयत्न किया गया । वस्तुतः कुन्दकुन्द की प्रतिमा सर्वतोमुखी थी अतः उनके दार्शनिक मूल्यांकन के साथ-साथ जब तक साहित्यिक एवं सांस्कृतिक मूल्यांकन नहीं किया जायेगा तब तक उनके विराट् दैदीप्यमान व्यक्तित्व को समझने में कठिनाई होगी।
1. भा. सं. में जैन. का योगदान, डॉ० हीरालाल जैन, पृ० 77 ।