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________________ जैनविद्या 25 य श्रुति सयलं<सकलं आयासं<आकाशं लोयं< लोकं सायरं<सागरं वयणेहि रवचनैः भायणो<भाजन: सुयं <श्रुतम् हवइ<भवति मारुयवाहा(मारुतवाधा पयत्थो<पदार्थः उयरे (उदरे (प्र० सा० 54) (पंचास्ति० 91) (प्र० सा० 35) (पंचास्ति० 172) (पंचास्ति० 34) (भावपाहुड, 65, 69) (प्र० सा० 33) (मोक्षपाहुड, 38) (भावपाहुड 121) (प्र० सा० 14) (भावपाहुड, 39) व श्रुति उवासो<उपवासः (प्र० सा० 1.69) अवधीदो<उपधीतः (प्र० सा० 3.19) (5) (क) प्रथमा विभक्ति में महाराष्ट्री-प्राकृत के समान 'ओ' । यथासो<सः (चा० पा० 38) जो<यः (चा० पा० 38) (ख) चतुर्थी एवं षष्ठी के बहुवचन में 'सि' । यथातेसि < तेभ्यः (प्र० सा० 82) (न) पंचमी के एकवचन में शौरसेनी-प्राकृत के समान 'पादो' प्रत्यय । यथापरिणामादो< परिणामात् (प्र० सा० 129) महाराष्ट्री-प्राकृत के समान तम्हा < तस्मात् (प्र० सा० 84) (घ) सप्तमी में अर्धमागधी-प्राकृत के समान 'म्मि, म्हि' प्रत्यय । यथादाणम्मि < दाने (प्र० सा० 69) एगम्हि < एकस्मिन् (प्र० सा० 143) (6) / शौरसेनी के समान
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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