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________________ 24 जैनविद्या गया । यही नहीं, उत्तर एवं पश्चिमी भारत में जो प्राकृत-साहित्य लिखा गया उसमें भी महाराष्ट्री की कुछ प्रवृत्तियों का समावेश हो गया, इस कारण उसे जैन-महाराष्ट्री के नाम से अभिहित किया गया किन्तु यह तथ्य है कि षट्खण्डागम-साहित्य में शौरसेनी की मूल प्रवृत्तियाँ ही अधिक हैं तथा महाराष्ट्री-प्राकृत की प्रवृत्तियाँ गौणतर दिखाई देती हैं । इसे ही जैन-शौरसेनी भी कहा गया है। ___ यहाँ यह प्रश्न उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि महाराष्ट्र तथा गुजरात में जब महाराष्ट्री प्राकृत की प्रवृत्तियों का पूर्ण या आंशिक रूप में प्रवेश हो गया था तब सुदूरदक्षिण में बैठकर लिखा गया साहित्य उससे गौणरूप में ही क्यों प्रभावित हो सका? इसका एक सामान्य सा उत्तर यही हो सकता है कि उस साहित्य का प्रणयन दक्षिण में महाराष्ट्री-प्राकृत के प्रभाव के पूर्व ही हो चुका था तथा आर्येतर भाषाओं के मध्य रहकर भी अपनी पूर्व-भाषा के रूप का अभ्यास करते रहने के कारण वे (कुन्दकुन्द आदि) महाराष्ट्री के प्रभाव से बहुत कुछ अंशों तक बचे रहे। इस प्रकार प्राचार्य कुन्दकुन्द की भाषा जैन शौरसेनी है जिसकी कुछ मुख्य प्रवृत्तियाँ निम्न प्रकार हैं(1) कर्ताकारक एकवचन पुलिंग में 'प्रो' । यथाजादोरजातः (प्र० सा० 19) उप्पादो<उत्पादः (प्र० सा० 18) मणिदो<भणित: (प्र० सा० 14) (2) त वर्गीय प्रथम एवं द्वितीय वर्गों के स्थान पर क्रमशः तृतीय एवं चतुर्थ वर्णों का पाया जाना । यथाभूदो<भूतः (प्र० सा० 16) होदिभवति (प्र० सा० 16, 113) हवदि कधं<कथम् (स० सा० 113) तघा<तथा (प्र० सा० 146) अपवाद-अधिकतेजो< अधिकतेजः (प्र० सा० 19) (3) महाराष्ट्री-प्राकृत के समान मध्य एवं अन्त्यवर्ती ककार लोप एवं अ स्वर शेष । यथावेउविनोवैक्रियिकः (प्र० सा० 171) (4) महाराष्ट्री-प्राकृत के समान मध्य एवं अन्त्यवर्ती क्, ग्, च्, ज्, त्, द् का प्राय: अनियमित रूप से लोप तथा उद्वृत्त स्वर के स्थान पर 'य' श्रुति का पाया जाना तथा अनादि 'पकार' के लुप्त होने पर उद्वृत्त स्वर के स्थान पर 'व' श्रुति का पाया जाना । यथा
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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