SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनविद्या उत्पन्न होती है । इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य से उत्पन्न होनेवाली पर्यायें क्रम से जन्म लेती हैं । एक समय पहले जो पर्याय थी वह दूसरे समय में नहीं पाई जाती । हम अपनी इन बाहरी आंखों से उन सब पर्यायों को कहां देख पाते हैं ? प्रत्येक क्षण की असंख्य पर्यायें हमारी दृष्टि से अोझल रहती हैं । यद्यपि वस्तु सदा काल वही रहती है जो अपने स्वरूप से होती है किन्तु उनकी पर्याय-दशा (हालत) बदलती रहती है। किसी वस्तु की दशा बदलने में किसी अन्य वस्तु का हाथ नहीं होता । एक वस्तु दूसरी वस्तु का परिणमन नहीं कर सकती । यह जैन तत्त्वज्ञान की सबसे बड़ी विशेषता है । प्राचार्य कुन्दकुन्द के शब्दों में जो जम्हि गुणं दम्वे सो अण्णम्हि दु ण संकमदि दवे ।। सो अण्णमसंकेतो किह तं परिणामए दव्वं ॥ 103, स. सा. अर्थात्-जो वस्तु जिस द्रव्य में तथा जिस गुण में वर्तती है वह अन्य द्रव्य में व अन्य गुण में संक्रमण नहीं करती यानी बदल कर उन में नहीं मिल जाती । जब वस्तु अन्यरूप से संक्रमण नहीं करती, तब अन्य वस्तु को कैसे परिणमित करा सकती है यानी किसी दूसरी को अपने रूप बदल नहीं सकती । यह तो भारतीय परमाणुवाद में माना गया है कि प्रत्येक परमाणु में सभी मौलिक गुण विद्यमान हैं । जितने मौलिक गुण विद्यमान हैं उतने प्रकार के ही मूल परमाणु हैं । इतना अवश्य है कि वेदान्तदर्शन प्रत्येक परमाणु में एक गुण स्वीकार करता है, जबकि जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक परमाणु में अनन्त गुण हैं । उन सभी परमाणुओं की स्वतन्त्र सत्ता है जो पिण्ड-स्कन्धों में मूल रूप से लक्षित नहीं होते। __ जैनदर्शन में कार्य-कारण का विचार तो किया गया है किन्तु परनिमित्त की अपेक्षा स्वनिमित्त या स्वभाव-साधन को ही प्रमुखता दी गई है । वहां पर पर-कारणों की बिल्कुल उपेक्षा की गई है । संयोग तथा विभाव-दशा में उपचार से परनिमित्तों का. भी कथन किया गया है, उनका निषेध नहीं है, किन्तु स्वभाव या परमार्थ की दृष्टि से कार्यकारी न होने से उन को हेय कहा गया है। इसका इतना सूक्ष्म तथा गहन वर्णन प्राचार्य कुन्दकुन्द ने परम प्राध्यत्मिक ग्रन्थ 'प्रवचनसार' में विस्तार से किया है । वे तो यहां तक कहते हैं कि ज्ञान के द्वारा आत्मा ज्ञायक नहीं है किन्तु स्वयं ही ज्ञानरूप परिणमित होता है । इसलिए आत्मा और ज्ञान पृथक् नहीं हैं। सभी पदार्थ आत्मज्ञान में स्थित हैं । प्रात्मा में कर्तृत्व और करणरूप शक्ति भिन्न न होने से जो स्वयमेव जानता है (ज्ञायक) वही ज्ञान है । परमार्थ में आत्मा और ज्ञान में कोई भेद नहीं है । किन्तु व्यवहार से समझाने के लिए भेद किया जाता है जो वास्तविक नहीं है । दोनों की भिन्नता बताने के लिए किसी अपेक्षा से ठीक है । यह सुनिश्चित है कि भारतीय तत्त्वचिन्तन में अध्यात्म ही मुख्य है। बिना तत्त्वज्ञान के अध्यात्म का प्रारम्भ नहीं होता । यद्यपि यूरोपीय दार्शनिक चिन्तकों में सर्वप्रथम डेकार्ट ने प्रारम्भ में सभी वस्तुओं के अस्तित्व को नकार दिया था किन्तु तुरन्त ही उसे अपनी इस भूल का पता लग गया था कि अपनी चेतना में सन्देह करना उनके लिए सम्भव
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy